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वरदान / अंतराल / महेन्द्र भटनागर

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खुल गये आबद्ध अन्तर-द्वार !

सिंधु करता जब गरज अतिहास ;
नाचती थी मृत्यु आकर पास,
आँधियों की गोद में जब हो रहा था —
अब गिरा, हा ! अब गिरा, तब
हाथ में दृढ़ आ गया पतवार !

याचना करता रहा हैरान
पंथ पर विक्षुब्ध मन म्रियमाण,
नग्न भूखी ज़िन्दगी साकार हो जब
ले रही थी साँस अंतिम
मिल गये तब विश्व के अधिकार !

डूबते से जा रहे थे प्राण ;
शुष्क निर्जन था सकल उद्यान
पीत-पत्तों को गँवा कर डालियाँ जब
लुट गयीं तब, दूर से आ
चली पड़ी मधुमय बसंत-बयार !
1946