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वरमाला रौंद दूंगी / रमणिका गुप्ता

एक
बड़ी बारादरी में
सिंहासनों पर सजे तुम
बैठे हो-
कई चेहरों में
वरमाला के इंतजार में
बारादरी के हर द्वार पर
तुमने
बोर्ड लगा रखे हैं
‘बिना इजाजत महिलाओं को बाहर जाना मना है
परंपराओं की तलवार लिए
संस्कार पहरे पर खड़े हैं
संस्कृति की
वर्दियां पहने

मैं
वरमाला लिए
उस द्वार-हीन बंद बारादरी में
लायी गयी हूं
सजाकर वरमाला पहनाने के लिए
किसी भी एक पुरुष को
मुझे
बिना वरमाला पहनाए
लौटने की इजाजत नहीं
मेरा ‘इनकार’
तुम्हें सह्य नहीं
मेरा ‘चयन’
तुम्हारे बनाए कानूनों में कैद है

वरमाला पहनानी ही होगी
चूंकि बारादरी से निकलने के दरवाजे
मेरे लिए बंद हैं
और बाहर भी
पृथ्वीराज मुझे ले भागने को
कटिबद्ध है
मेरा
‘न’ कहने का अधिकार तो
रहने दो मुझे

मेरा
‘चयन’ का आधार तो
गढ़ने दो
बनाने दो मुझे

पर
तुम-जो बहुत-से चेहरे रखते हो
मुखौटे गढ़ते हो
स्वांग रचते हो
रिश्ते मढ़ते हो
संस्कृति की चित्रपटी पर
केवल
एक ही चित्र रचते हो
मेरे इनकार का नहीं
और
आज मैंने इनकार करने की हठ ठान ली है...
वरमाला लौटाने का प्रण ले लिया
‘न’ कहने का संकल्प कर लिया है

इसलिए
हटा लो
संस्कारों के पहरेदारों के
दरवाज़ों पर से
नहीं तो-
मैं
तुम्हारे मुखौटे नोच दूंगी
होठों से सिली मुसकानें उधेड़ दूंगी
ललाट पर सटा कथित भाग्य उखाड़ दूंगी
हाथों से दंभ के दंड छीन लूंगी
हावों से अधिकार की गंध खींच लूंगी
आंखों में चमकते आन के आईने फोड़ दूंगी
और तेरी आकांक्षाओं में छिपे
शान और मान के पैमाने तोड़ दूंगी
तेरी नजर के भेड़ियों को रगेदकर
दरवाजों पर खड़े पहरेदारों को खदेड़कर
वरमाला रौंद दूंगी
पर
नहीं पहनाऊंगी
तुम्हारी सजी हुई कतार में से किसी को
क्योंकि
इस व्यवस्था में
‘चयन’ का मेरा अधिकार नहीं है!