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वरिष्ठ कवि कैप्टिन गिल की दृष्टि में बचपन / हुकुमपाल सिंह विकल

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वरिष्ठ कवि कैप्टिन गिल की दृष्टि में बचपन

'बचपन' शीर्षक से नामांकित यह कृति श्रीयुत एच।एस। गिल की चालीस कविताओं का एक बड़ा ही सुन्दर गुलदस्ता है। हालांकि इन कविताओं को कवि ने कोई शीर्षक नहीं दिया है। फिर भी पूरी कविताऐं बाल जीवन से पूरी तरह जुड़ी हुई है। कवि भले ही एक सैन्य अधिकारी रहे हैं, परन्तु बाल मनोविज्ञान का इनका ज्ञान किसी भी श्रेष्ठ शिक्षक से किसी भी तरह से पीछे नहीं है, उनमें सेना शिक्षा तथा साहित्य की एक अनूठी त्रिवेणी का संगम हमें देखने को मिलता है। कवि के मन्तव्य में जीवन एक प्रवाह है, अनवरत प्रवाह। बचपन उस जीवन का उदगम है। बचपन से लेकर अपने अंतिम समय तक यह प्रवाह न तो रूकता है और न रुकने की कोई संभावना है। इस प्रवाह से सबको कोई न कोई आशा बनी रहती है। खुद को तो रहती ही है, इसके अतिरिक्त माता-पिता, मित्र तथा गुरुजनों को बहुत अपेक्षाएँ रहती हैं। इसीलिए तो बचपन सही में ज़िन्दगी की बुनियाद है। कवि ने इसी बुनियाद को मानव जीवन का सही आधार माना है।
कवि सामाजिक सरोकार को ही अपना मुख्य ध्येय मानते हैं। बचपन यदि सही सही गुजर गया तो पूरी जिन्दगी के ठीक-ठीक से गुजरने के आसार होने लगते हैं। बचपन जीवन का प्रारंभ है। किसी ने कहा है कि "बालक आदमी का पिता होता है। "Child is the father of man" यह कथन बिलकुल सत्य है बालक से ही मानवता का जन्म होता है। बालक ही मनुष्य का विधाता है। कवि ने इसी बालक की जिन्दगी को अपनी कविताओं में रचा है। कवि के शब्दों में –
"प्रभात की किरणों की तरह ही, बचपन का उदय होता है - इन दोनों में बहुत करीब की समानता है। बचपन उतना ही कोमल और सुन्दर होता है, जितनी कि प्रभात की किरणें, शीतल और रमणीक होती हैं।"
देखिए बचपन की वस्तुस्थिति को प्रभात की किरणों का होना ही बचपन का होना है।
कवि ने केवल सूरदास जी की तरह बचपन की भाव-भंगिमाओं का ही चित्रण नहीं किया हैं, उन्होंने उसे हर दृष्टि से पहले देखा है और फिर उसे अपने शब्दों में बाँधा है। तभी तो श्री गिल का रचना-संसार बचपन को इतने अच्छे ढंग से निरूपित कर सका है। एक स्थान पर श्री गिल बचपन के संबंध में कहते है कि "बचपन कहीं भटक कर न रह जाए, समाज में बनी गलियों के रास्तों पर, सम्भल कर चलना बहुत आवश्यक है। हर गली का रास्ता, उसके अपने घर के आँगन से शुरू होता है, इसीलिए बहुत जरूरी है, आँगन का वातावरण स्वच्छ हो।"
कवि के पास अपनी भाषा है और अपने भाव हैं। उनके सृजन-बोध की सहनशीलता और मौलिकता उनकी अपनी है, उसे उन्होंने कहीं से उठाया नहीं है। जहाँ तक शैली का प्रश्न है, वह कतई आयातित नहीं है। अपने भाव-बोध को स्पष्ट करने के लिए जो भी कवि को शब्द मिले हैं, वे उन्होंने बड़ी सर्तकता के साथ प्रयुक्त किए हैं। उनकी भाषा में सहजता के साथ-साथ अर्थ की अपनी सहजता और भी उसे प्राणवंत बनाती है।
श्री गिल मूलतः पंजाबी हैं। उनकी मातृभाषा भी पंजाबी है। पंजाबी होते हुए भी हिन्दी में रचना करना कितना कठिन काम है, परन्तु कवि की अपनी जिज्ञासा और शब्द-साधना से उनका यह कार्य वास्तव में ही एक अच्छे कवि का कार्य बन गया है। वे जब कविता करते होते हैं तो ऐसा लगता है कि वे अपने पाठकों से बतिया रहे हों - देखिए उनकी कविता की एक बानगी –
"बचपन कितना भोला होता है,
जब सोचता हूँ आज,
मानव बनने के बाद,
कितना बदल जाता है सब
वह दिन
जब कोई आभास नहीं था
कि धर्मो में भी अंतर हो सकता है।
अनायास ही कदम उठते चले आते है,
अपने सहपाठियों के साथ
बाईं दिशा में
जहाँ था मंदिर बजरंगबली का"
कवि, धर्म की संकीर्णता में विश्वास नहीं करता, वो ‘सर्वधर्म समभाव’ की जमीन पर खड़ा होना चाहता है। बचपन यदि यहीं से आगे बढ़े तो कितना अच्छा हो। बचपन बचपन है। भोला-भाला, ठीक परमेश्वर की तरह। राम, कृष्ण, गौतम गांधी तथा गुरुनानक सभी ने अपने बचपन को जिया है, ठीक उसी तरह जैसा कि श्री गिल का कवि-मन चाहता है। कवि गिल, केवल परम्परा से ही जुड़कर नहीं रह जाते, वह अपने बचपन को कम्प्यूटर की धड़कनों तक ले जाते हैं। यही कारण है कि यह कृति उनकी रचनाओं की श्रेष्ठ कृति है। हालांकि उन्होंने बहुत लिखा है, परन्तु इस रचना की कविताओं में उनका कवि खुलकर पाठकों के सामने आता प्रतीत होता है।
वैसे, किसी भी कृति के सही आलोचक तो उसके पाठक होते हैं। परन्तु पाठकों तक रचना को पहुँचाना भी तो कवि-धर्म का उद्देश्य होता है। इसमें कैप्टिन गिल बिलकुल सफल सिद्ध हो रहे हैं।
मैं अन्त में कैप्टिन गिल को उनकी इस अच्छी कृति के लिए बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि वे आगे इससे और अच्छी रचनाएँ साहित्य जगत को सौंपेंगे। उनके सृजन-बोध को साधुवाद।

भोपाल
दिनांक 29.04.2006

(हुकुमपाल सिंह विकल)
29 इंदिरा कॉलोनी,
बाग उमराव दुल्हा,
भोपाल - 10