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वर्षा ऋतु से... / सूरज

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वह मद्धिम करार भी टूट चुका

वर्षा रानी ये ज़िद छोड़ो
बादलों की धार फोड़ो

तुम्हारी जल-पंखुड़ियाँ धरती को सरोबार जब चूमेंगी
सहसा, तुम्हारी बूँदे निगाह बन उसे ढ़ूँढ़ेंगी
जो अब नही होगी वहाँ
आँगन के पार-द्वार
पर तैयार

वर्षों-वर्षों तक हमने हथेलियों में थामें हाथ
किया स्वागत तुम्हारा तुमने सहलाया ख़ुश
हो बौछारों से हमें पीटा हम थे कि जी उठे
और अब मैं, उन मीनारों में अकेला
जिससे फूटते रास्ते शाखाओं की तरह पर एक भी
अभागी राह उस ओर की नही

बारिश तुम आना
उसे न पाकर लौट ना जाना
बिन बुलाए मेहमान की तरह ही हो
पर वहाँ जाओ जहाँ ज़रूरत तुम्हारी हो

तुम्हारी राह देखता मै ही नही इमली के कितने पेड़ जिनके
फलने की राह देखती कितनी माएँ
जो तुम्हारे स्वागत के लिए नई और
सुदृढ़ पीढ़ी जनेंगी

वह मेंढक तुम्हारे रंग में रंगा
गीले मन सहित इस कविता में
छलाँग लगाएगा, बताएगा मुझे
इस वर्ष जब वो ही नही रही
तब तुम्हारे जल का स्वाद

तुम्हारी बाट खोजती हजारहा फ़सलें जो निवाला बन जाने की
आतुरता लिए मुझसे अनगिन बातें कर रही हैं

नाराज़ ना हो सौन्दर्य ऋतु
मैं तुम्हे बताऊँगा प्रेम के नए
रंगरूटों का पता जो करेंगे
स्वागत तुम्हारा
हमसे भी सुन्दर
हमसे भी बेजोड़

वो भी भूली मुझे
तुम्हे नहीं
तुम्हारे स्वागत में उसने बनाई होगी रंगोली
अँजुरी बनाए थामे होंगे दो मज़बूत हाथ

तुम आओ
मेरी स्मृतियों तक आओ
बरसते-बरसते थक जाओगी तब
हम भाप के जालों के बीच पीएँगे
कुल्हड़ की चाय और तुम मेरी स्मृतियों
की साँकल खोल मिल आना उससे

बारिश, अब तुम आओ ।