भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वर्षा ऋतु / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चारों ओर मची है हलचल।
गरज रहे हैं बादल के दल
चमक चमक बिजली जाती है।
आँखों को चमका जाती है।
झम झम बरस रहा है पानी।
घर से नहीं निकलती नानी।
बेहद घिरी घटा है काली।
बिनती है बूंदों की जाली।
बादल है अथवा बनमाली?
देखो जहाँ वहीँ हरियाली।
नाच रहे हैं मोर मुरेले।
कीच केचुएँ घर घर फैले।
झरने हैं हो रहे पनाले।
गलियों में बहते हैं नाले।
धूल जहाँ उड़ती थी बेढब।
वहीँ नहाता हाथी है अब।
नदियाँ हैं समुद्र सी फैली
लहर रहीं लहरें मटमैली।

भीगी मिटटी महक रही है।
जल की चिड़िया चहक रही है।
मेंढक भी मुंह खोल रहे हैं।
टर टों , टर टों बोल रहे हैं।
भीग रहा बेचारा बंदर।
उसे बुला लो घर के अन्दर।
है किसान भी चला रहा हल।
खुश हो उसका रहा मन उछल।
वर्षा ही उसका जीवन है।
यह ही उस निर्धन का धन है।
कल जब निकला घर से बाहर।
देखा इन्द्रधनुष था सुंदर।
उसमें रंग कहाँ से आया?
अब तक जान न मैंने पाया।
दौड़ो नहीं, फिसल जाओगे।
मुंह में कीचड़ भर लाओगे।
यहीं बैठ कर देखो बादल।
बनिये का सब नमक गया गल।
किया पतन्गों ने है फेरा।
बादल सा दीपक को घेरा।
बिगड़ रहे बैठक से दादा।
और न अब लिख सकता जादा