भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वर्षा की बूंदे / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:41, 4 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़ी बड़ी बूंदें पड़ती हैं,
बड़ा मजा है बड़ा मजा।
जल्दी निकलो घर से बाहर,
बड़ा मजा है बड़ा मजा।
दल के दल दौड़े आते हैं,
देखो बादल के कैसे।
छुट्टी का घंटा बजते ही,
भगते हैं लड़के जैसे।
डाली डाली पर पेड़ों की,
नाच रही है हरियाली।
खुश हो मुन्नी बजा रही है,
अपनी छत पर से ताली।
पूंछ उठा कर दौड़ रही हैं,
घीसू की तीनों गायें।
इस चबूतरे पर चढ़ आओ,
यहाँ भी न वे आ जायें।
कैसी ठंडी हवा बही है,
कैसा समय निराला है।
देखो उस ऊँचे पीपल में,
किसने झूला डाला है।
सूरज का न पता चलता है,
कैसा बढ़ा अँधेरा है।
खूब घुमड़ कर आज घनो ने,
आसमान को घेरा है।
अरे सुनो तो कैसी प्यारी,
बोली बोल रहा है मोर।
आओ हम भी दौड़ चलें अब,
फौरन उसी बाग की ओर।
ओहो भाई भागो भागो,
लगा बरसने पानी अब।
पेड़ तले बच नहीं सकेंगे,
कपड़े भीग जायेंगे सब।