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वसंत का गान / आलोक श्रीवास्तव-२

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तुम आने वाले वसंत का गान हो
धरती का सजल छंद ...

मिल नहीं सका तुमसे फिर कभी
कह नहीं सका अपना प्यार
छू नहीं सका कंधों पर ठहरे तुम्हारे केश
फिर भी तुम्हें देखा है अक्सर कल्पना में
शालीन गरिमा से गुजरते
जिंदगी बिखेरते
किन्हीं अनजान रास्तों पर
आंखों में स्वप्न लिये
फूलों के बीच टहलते

तुम्हारी छाती में धड़कते गीत नहीं चूम सका
पर धरती पर पैर रखते
बहुत आहिस्ता उन्हीं की प्रतिगूंज सुनी
दिगंतव्यापी स्वर्णशालियों में
तुम्हारा ही आंचल उड़ता देखा

देश की कितनी छवियां
अनाम नदी, गांव, गली, पोखर, पर्वत...
सब में समा गया तुम्हारा रूप

सूनी रात के अकेले चांद की तरह
जानता हूं होगी तुम कहीं
जानता हूं कल फूट पड़ेंगी मंजरियां डालों पर
धरती पर गूंज उठेगा वसंत का गान
और एक चेहरा झलक उठेगा सुदूर अतीत से

उसी चेहरे की स्मृति है
वियोग के इस पतझर में ।