भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वसंत का सोनार चांद / आलोक श्रीवास्तव-२

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

  
तुम इस वक़्त कहां होगी ?

आकाश में थके बादल हैं
और सोनार चांद

तुम्हारे हांथ का लिखा एक पन्ना मेरे हाथों में है

तुम शायद इस वक़्त घर के रास्ते पर होगी
तेज़ घुमाव लेती ट्रेन की खिड़की पर चेहरा टिकाये
किसी सोच में डूबी
और जानता हूं हमेशा की तरह दो लटें
तुम्हारे चेहरे पर घिर आयी होंगी

रास्ते के लैंपपोस्ट
और दरख़्तों की छायाएं पीछे छूटती जा रहीं हैं

एक पल तुम्हारी आंखों में दिखता है आंसू
फिर उन्हीं आखों में चांद का अक्स उभर आता है

अभी इसी वक़्त तुम्हें यहां होना चाहिये
मेरे नज़दीक
मैं तुम्हें थपकी देकर सुलाना चाहता हूं
तुम्हारे बालों को बहुत आहिस्ता से चूम कर
संवार देने को विकल हो उठा है मन...

आज रात अपनी खिड़की से यह सोनार चांद देखते
तुम मुझे याद करना
बहुत दिनों से नहीं मिले हम
देखो न, बीच में यह ट्रेन है, जंगल हैं मकानात के
दरख़्तों की गहरी होती परछाईयां
और आकाश के थके बादल हैं
और मैं तुम्हें याद कर रहा हूं, मेरी दोस्त
गहरी भावना के वशीभूत होकर

दूर आकाश में टंगा है
वसंत का
सोनार चांद ... ।