Last modified on 28 मार्च 2011, at 18:53

वसंत की आस-1 / कर्णसिंह चौहान

जब युद्ध के बीचो-बीच
कट गए सारे अस्त्र-शस्त्र
उखड़ गए सेना के पैर
बर्फ़ीली हवा के बाणों की बौछार
डाल दिए कद्दावर पेड़ों ने भी हथियार
निष्कवच खड़े थे तब
पराजित ठूँठ ।

तभी बर्फ़ ने अंक में भर
समो लिया
वहाँ सुरक्षा में पनपता
भरा-पूरा संसार
सतत संपर्क का
क्तिया-व्यापार ।

पास ही फैली थी हरी दूब
बाहर की गतिविधियाँ का
ब्यौरा देती जड़े
बगल में सहमी लेटी थीं नदियाँ
तालाब की मछलियाँ
अनंत शिशुओं को कोख में छिपाए
अनगिनत बीज
माँ की गोदी में उछलते-मचलते
धरती के आँगन में गुपचुप
ख़ुशियों का मेला ।


अंतस से बेख़बर
सतह को रौंद रहीं
शत्रु सेनाएँ
फहरा रही
पताकाएँ
बज रहे बिगुल ।

अंदर सभाओं में
जन्मते वसंत के सपने ।

धरा पर फैल गई सूरज की किरणें
पेड़ों की कोंपल
ट्यूलिप से भरा बगीचा
नाच उठी नदियाँ
बच्चों की अलमस्त टोलियाँ
शत्रु के ठीक नीचे
वसंत का रंग बिखरा था ।