मन का सौंदर्य नष्ट नहीं होता
बह जाई हैं कितनी नदियाँ
कितने पर्वत-शिखरों से होकर
कितनी ऋतुएं
झरते पत्तों
रसमाते फूलों से होकर
पर मिटती नहीं मन से
सौंदर्य की छापें
कोमलता के बिम्ब
धूसर नहीं होते
प्रेम का पहला गीत
किसी वसंत के निर्जन में
गूंजता रहता है
अविराम !