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वसन्त पथिक / रामचंद्र शुक्ल

देखो पहाड़ी से उतरता पथिक हैं जो इस घड़ी,
हैं अरुण पथ पर दूर तक जिसकी बड़ी छाया पड़ी।
छिपकर निकलता टहनियों के बीच से झुकता कभी,
और फिर उलझकर झाड़ियों में घूमकर रुकता कभी।
आकर हुआ नीचे खड़ा, अब सामने उसके चली,
फैली हुई कुछ दूर तक वन की घनी रम्य स्थली।

कचनार कलियों से लदे फूले समाते हैं नहीं,
नंगे पलासों पर पड़ी हैं राग की छीटें कहीं।
ऊँची कँटीली झाड़ियाँ भी पत्तियों से, हैं मढ़ी,
हल्की हरी, अब तक न जिन पर श्यामता कुछ भी चढ़ी।
सुन्दर दलों के बीच में काँटे छिपे हैं, थामना!
जैसे भलों के संग में खोटे जनों की कामना।
पौधे जिन्हें पशु नोचकर सब ओर ठूठे कर गए,
वे भी सँभलकर फेंकते हैं फिर हरे कल्ले नए।

वे पेड़ जिनपर बैठते कौवे लजाते थे कभी,
कैसे चहकते आज हैं उन पर जमे पक्षी सभी!
कटते हुए अब खेत भूरे सामने आने लगे,
जिनमें गिरे कुछ भाग से ही भाग चिड़ियों के जगे।
सूहे वसन्ती रक्ष् के चल आ सी मृदुगामिनी,
हैं डोलती उस भूमि की भूरी प्रभा में भामिनी।

लिपटे हुए द्रुम जाल में वह झाँकते हैं झोपडे,
जो अन्न के शुभ सत्रा-से सब प्राणियों के हित खडे।
जो शान्ति औ सन्तोष के सुख से सदा रहते भरे,
मिलता जहाँ विश्राम हैं दिन के परिश्रम के परे।
आकर समीर प्रभात ही वन खेत से सौरभ लिए,
हैं खेलता प्रति द्वार पर हिम बिन्दु को चद्बचल किए।

भोली लजीली नारियों से नित्य ही आकर जहाँ
हैं पूछ जाता आड़ में छिपकर पपीहा “पी कहाँ?”
छेड़ा पथिक को एक ने हँसकर “उधर जाते कहाँ?
वह राह टेढ़ी हैं।” कहाँ उसने “नहीं चिन्ता यहाँ।”

कब घेर सकती हैं उसे चिन्ता भला निज छेम की,
जिसके हृदय में जग रही हैं ज्योति पावन प्रेम की?
छायी गगन पर धूल हैं निखरी निरी निर्मल मही,
मानो प्रकृति के अंग पर मंजुल मृदुलता ढल रही।

देखो जहाँ अमराइयाँ हैं मौरकर उमड़ी हुई,
कंचनमयी पीली-प्रभा सौरभ लिये पड़ती चुई।
यह आम की मृदु मंजरी अब मन्द मारुत से हिली;
कूकीं कई मिल कोयलें, टूटी पथिक-ध्यानावली।
तब देख चारों ओर अपने निज हृदय की टोह ली,
पाई नहीं आमोद के संचार को उसमें गली।

चलता रहा चुपचाप; चट फिर बात यह उसने कही
“अधिक हैं रहे सन्तुष्ट हो सुषमा निरख जो आप ही।
सुनता रहे ध्वनि मधुर पर मन में न अपने यह गुने,
हा! पास में कोई नहीं हैं और जो देखे सुने।
वे धन्य हैं पर-ध्यान में जो लीन ऐसे हो रहे,
जो दो हृदय के योग में कुछ भूल अपने को रहे।
बाँटे किसी सुख को सदा जो ताक में रहते इसी,
जिनके वदन पर हास हैं प्रतिबिम्ब मानस का किसी।”

कोमल मधुर स्वर में किसी ने पूछा वहीं कुछ झोंक से,
'बातें' कहाँ की कर गये? आते कहो किस लोक से?”
देखा पथिक ने चौंककर, पाया किसी को पर नहीं,
अचरज दबे पड़ने लगे पग मन्द मारग में वहीं।
बोला उझककर “पवन तूने कहाँ से ये स्वर छुए,
अथवा हृदय से गँजकर ये आप ही बाहर हुए।”
इस बीच नीचे कुंज से फुर से उड़ी चिड़ियाँ कई,
सँग में लगी कुछ दूर उनके दृष्टि भी उसकी गई।

देखा पथिक ने दूर कुछ टीले सरोवर के बडे,
हैं पेड़ चारों ओर जिन पर आम जामुन के खडे।
हिलकर बुलाते प्रेम से प्रति दिन हरे पत्तो जहाँ,
“आओ पथिक, विश्राम लो छिन छाँह में बसकर यहाँ।”
हैं एक कोने पर झलकता श्वेत मन्दिर भी वही,
हारे पथिक की दृष्टि हैं उस ओर ही अब लग रही।

बढ़ने लगा उस ओर अब; आई वही ध्वनि फिर,”रहो!
लेने चले विश्राम का सुख तुम अकेले क्यों कहो?”

यद्यपि घने सन्देह में थे भाव सब उसके अड़े,
मुँह से अचानक शब्द ये उसके निकल ही तो पडे।
“बस में नहीं यह सुख उठाकर हम किसी के कर धरें,
पथ के कठिन श्रम से न कुछ जब तक उसे पीड़ितकरें।”

विस्मय-भरे मन से छलकती कल्पना छन छन नयी,
'छाया यहाँ छलती मुझे, यह भूमि हैं मायामयी'।

यह सोचते ही सामने आया रुचिर मन्दिर वही,
जिसके शिखर पर डाल पीपल की पसरकर झुक रही।

प्रतिमा पुनीत विराजती भीतर भवानीनाथ की,
आसन अचल पर हैं टिकी बाहर सवारी साथ की।

करके प्रणाम, विनीत स्वर से पथिक यह कहकर टला,
“क्या जान सकते हैं प्रभो, माया तुम्हारी हम भला?”

देखा सरोवर तीर निर्मल नीर मन्द हिलोर हैं;
जिसमें पडी वट विटप-छाया काँपती इक ओर हैं।
अति मन्द गति से ढुर रही हैं पाँति बगलों की कहीं,
बैठी कहीं दो चार चिड़ियाँ पंख को खुजला रहीं।

झुककर दु्रमों की डालियाँ जल के निकट तक छा रहीं,
जिनसे लिपट अनुराग से फूली लता लहरा रहीं।

सौरभ-सनी, जलकण मिली मृदु वायु चलती हो जहाँ,
होवे न क्यों फिर पथिक की काया शिथिल शीतल वहाँ?
उतरा पथिक जल के निकट, फिर हाथ मुँह धोकर वहीं,
बैठा घने निज ध्यान में, तन हैं कहीं और मन कहीं।

हिलकर सलिल अब थिर हुआ, उसमें दिखायी यह पड़ी,
किस मोहिनी प्रिय मूर्ति की छायामयी आकृति खड़ी।
ताका उलटकर ज्यों पथिक ने खिलखिलाकर हँस पड़ा,
चंचल नवेली कामिनी जो पास थी पीछे खड़ा।

आभा अधर पर मन्द सी मुसकान की अब रह गई,
पलकें ढली पड़ती, मधुरता ढालती मुख पर नई।

पीले वसन पर लहरती अलकें कपोलों से छुई,
उस कुसुम कोमल अंग से छवि छूटकर पड़ती चुई।

जाने नहीं किस धार में सुध बुध पथिक की बह गई,
बीते अचल दृग से उसे तो ताकते ही छन कई।

कहता हुआ यह उठा पड़ा फिर,”हे प्रिये मम तुम कहाँ।”
हँसकर मृदुल स्वर से बढ़ी कहती हुई “हो तुम जहाँ।”
उमडे हुए अनुराग में आतुर मिले दोनों वहीं,
फूले हुए मन अंग में उनके समाते हैं नहीं।
बैठे वहीं मिलकर परस्पर, कामिनी ने तब कहा
हमको यहाँ पर देखकर होगा तुम्हें अचरज महा,
चलकर यहाँ से दूर पर कुछ एक सुन्दर ग्राम हैं,
जिसमें हमारी पूज्यतम मातामही का धाम हैं।

ठहरी हुई हैं आजकल हम साथ जननी के वहाँ,
हम नित्य दर्शन हेतु शिव के नियम से आतीं यहाँ।
यह तो बताओ थे कहाँ, यह रीति सीखी हैं भली,
जब से गये घर से, नहीं तब से हमारी खोज ली।
हमने यही समझा, जगत की अन्त करके सब कला,
होकर बडे बूढे फ़िरोगे; क्या किया तुमने भला।”
छोड़ो इन्हें ये प्रेम से जी खोलकर बोलें मिलें,
पाठक, यहाँ क्या काम अब हम आप अपनी राह लें।।

('कविता मंजरी' ग्रंथ से)