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वहाँ जाना होगा / दिनेश कुमार शुक्ल

जब भी जा पाऊँगा
मैं वहाँ
फिर सजल हो उठेंगी नदियाँ।
स्निग्ध हो जायेगी जेठ की धूप
हरे रस में इस कदर सराबोर हो जायेंगे
बबूल के कांटे
कि चुभना बन्द कर देंगे

बुखार में तपते बच्चे की
आँखों में कांपती कालरात्रि
खिल उठेगी
परियों की शरद पूर्णिमा में,
फिर जुगाली करने लगेगी
युगों से स्तब्ध खड़ी गाय
जब भी पहुँच पाऊँगा
मैं वहाँ

अपनी भू-लुंठित पताका
फिर से उठा लेगा इतिहास,
लबालब, अर्थों से भर जायेंगे शब्द,
संवाद की लहरों से
सनसना उठेगी फिर भाषा की झील
जहाँ पद्मावती सखियों के साथ
फिर से करेगी जल विहार

धरती की रगों से खींचकर
तरह-तरह की धातुयें और खनिज
षड्‍ऋतुएँ अलग-अलग रंगों में
रंगेंगी फिर अपने परिधान

और तुम अंकुरित हो उठोगी बीज सी
मातृत्व की गरिमा में --
दमकोगी तुम
अरूण प्रभात में नहाई
कांचनजंघा की तरह श्वेत रक्तिम
जब भी पहुँच पाऊंगा
मैं वहाँ

जब भी पहुँच पाऊंगा
मैं वहाँ
दसों दिशाओं में पोर-पोर
इस कदर व्यापेगा सुख
कि तुमसे मैं क्या कहूँ?
तब हम तुम
किस तरह फिर शुरू करेंगे
अपनी बात
क्योंकि सुख
लोग कहते हैं
होता है
गूंगे को गुड़ का स्वाद
एकदम अनिर्वचनीय

तो क्या
वाणी खो कर ही
मिलता है सुख ?
तो क्या करेंगे
हम तुम फिर ऐसे सुख का ?
अकारथ ही हमने
लड़े इतने युद्ध,
अकारथ ही गया यह सारा आयोजन
यह सारे सरंजाम
अकारथ ही है यह सब
अगर उत्कंठा से
पुकार नहीं पाया मैं
तुम्हारा नाम

सब कुछ पाने के बाद
सब कुछ खो कर
फिर से पाने के लिये
पार कर सुख की वैतरणी
तो भी वाणी विहीन
मुझे जाना होगा वहाँ से भी आगे
बार-बार फिर से
नदियों की सजलता के लिये

बच्चों की अमरता के लिये,
गाय के लिये,
इतिहास और शब्द के लिये,
ऋतुओं के लिये,
मातृत्व के लिये,
मैं जाऊंगा वहाँ
अकेला और अनाम
भविष्य की फसलों के लिये
अपनी खुशियों को
बीज सा बोता हुआ,
जाऊंगा मैं वहाँ-वहाँ से भी
आगे बहुत दूर।