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वह अनपढ़ मजदूरनी / सुशान्त सुप्रिय

उस अनपढ़ मजदूरनी के पास थे
जीवन के अनुभव
मेरे पास थी
काग़ज़-क़लम की बैसाखी

मैं उस पर कविता लिखना
चाह रहा था
जिसने रच डाला था
पूरा महा-काव्य जीवन का

सृष्टि के पवित्र ग्रंथ-सी थी वह
जिसका पहला पन्ना खोल कर
पढ़ रहा था मैं

गेंहूँ की बालियों में भरा
जीवन का रस थी वह
और मैं जैसे
आँगन में गिरा हुआ
सूखा पत्ता

उस कंदील की रोशनी से
उधार लिया मैंने जीवन में उजाला
उस दीये की लौ के सहारे
पार की मैंने कविता की सड़क