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वह क्षण / एल्विन पैंग / सौरभ राय

वह एक क्षण
जब कोई अपना हो जाता है पराया
मैं उसे पल को बड़ी शिद्दत से तलाश रहा हूँ।

ख़ुद-ब-ख़ुद आहिस्ता से छूटना था उसे,
टहनी की खाल में अटका हुआ
वो अकेला पत्ता

बजाय, एक विशेष क्षण होता है
जो है, और जो हम सोचते हैं
को अलग करता हुआ

उस लड़के की तरह जो एक सबेरे उठकर
गला साफ़ करता हुआ
ख़ुद की आवाज़ नहीं पहचान पाता

वह क्षण जब चिड़िया का नन्हा बच्चा
जान जाता है, कि अण्डे के कवच को तोड़कर
निकलने का वक़्त हो रहा है

जब एक बूढ़े को एहसास होता है
कि अगले बरस की बरसात
वो नहीं देख पाएगा।

इस पल के पार हम अन्धे होते हैं,
इस क्षण से ख़ुद को निकाल कर
देखते हुए।

कितना समय बीत जाता है
इस क्षण के होने को नकारने में,
ढकने में, इस क्षण को शब्दों से,

रेत के महलों से समन्दर को रोकने में,
और लहरें आकर देखतीं हैं इन्हें
अजनबियों की तरह।

मग़र मैं उस लम्हें से मिलूँगा
पूछूँगा उसका नाम, कि जब वो आए,
मैं कर सकूँ उसका स्वागत, और मिल सकूँ उससे
उसकी आँखों में झाँकते हुए, बेबाक़, बेख़ौफ़
बराबरी के साथ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सौरभ राय