Last modified on 9 जनवरी 2011, at 04:36

वह पहले जैसा नहीं था / पारस अरोड़ा

पहले था, सब कुछ वह
वैसा तो नहीं था !
वृक्ष, घर और हवा
रहते थे सभी में
लम्बा था दायरा ।

हवा बुहारती थी बहुत कुछ
भीतर का मौन भी
और शरीर के रोग
हवा में घुली थी औषधी
पत्ते ताली देते
गर्मी सहते
वृक्ष नाचते
उस से मिलने पर

नीपे-पुते-साफ सजे
वृक्षों के बीज अच्छे लगते थे घर
बातों में हो जैसे
घुला हुआ कोई नशा
जैसे पहले था सब कुछ
वैसा कुछ नहीं था ।

अब लगती है- हवा
हवा ही नहीं
जैसे सांस में गड़ी हुई है कोई फांस
जिसे निकालना कठिन हो गया है
रोगी जैसे गूंगे खड़े
वृक्षों की शाखाएं कटी हुई
कहने को रहने भर को घर-वर है
डर है कि इसे भी ठूंठ न दबोच ले
कहीं हवाएं ही न नोच लें ।

ऐसा क्यों है अब
क्यों कुछ पहले जैसा नहीं
कहां है वह
जो रहता था यहां
हर तरफ मौन क्यों फैला है ?

लोगों ने कहा-
पता नहीं कहां गया, यहां नहीं है
वह फलों-फूलों से लदा
घेर-घुमेरदार वृक्ष था
हवाओं की खुशबू था
आंगन की छाया था

लोगों की आशा था- चला गया
काले कारनामों वाले
उजले आकारों से छला गया
चला गया-
थका तो पुनः जोर जुटाने चला गया
आंखों में रक्त का सौलाब लिए चला गया
जाते-जाते छलने वालो के सामने ऐसे तना
एक-एक के हृदय में
जैसे कोई भुजंग सिर उठाए

कुछ सूखी हड्डियां जानती हैं
वह कहां गया होगा ?
वे कहती हैं-
वह हवा तूफान को लाने गई होगी
वह भोले आदमियों को समझाने गया होगा-
सूने घर की रौनक लाने,
कटे वृक्ष की प्रतिष्ठा जमाने

सच कहते हैं-
पुन: लौटने की सोच कर गया होगा
लेकिन उस समय
आदमी तो वही था
लकिन वह पहले जैसा नहीं था ।

अनुवाद : नीरज दइया