भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह पीड़ा / प्रेमलता वर्मा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:06, 30 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमलता वर्मा |संग्रह= }} <Poem> राष्ट्र है वह पीड़...)
राष्ट्र है वह पीड़ा जिससे
रोना नहीं सीखतीं हमारी आँखें
धुएँ के नीचे महामंडित, रूपवान
नदी तट पर जलसमाधि लेने को मज़बूर
लहरें- समुद्र के पके केश
लहराते रहते हैं अपने तर्क पर
जब बाहरी दुनिया यानी सभा
छोड़ देती अपनी पतंग, ढोल पीट
बहरी दूरियों में...।
इस बीच आम लोग हिलाते रहे
देश का राष्ट्रीय झंडा
भक्ति-भाव से शहीदों को याद कर।
और देवताओं के चेहरे पर फिसलती रहती हैं
हमारी प्रार्थनाएँ...