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Kavita Kosh से
वह सड़ियल पेट में
भूख-प्यास की आदत डालकर,
पैदा हुआ था
अपने बाप की मार खा करखाकर
अंधी कोठरी में
दुनियादारी झेलकर,
धुओं की बारहमासी बरसात में
अपने पारदर्शी सहोदरों के संग
इतना सयाना हुआ था
कि वह भांप सकता था
इतराते संबंधों को ,
आँक सकता था
सामाजिक समास को ,
झाँक सकता था
कौटुम्बिक ताने-बाने के बीच
बस, यही है
उसका पैंतीस बरस ,
बासी चमड़ी से ढंकी हुई
-दो सौ छ: हड्डियां
जिसकी रोशनी में
वह सिर्फ गिन सकता है
अपनी लाइनदार करास्थियों को ,
टटोल सकता है
गठिया के मीठे दर्द वाले जोड़ों को
और अपनी बपौती में मिली
बेशकीमती इकलौती कमीज़ और पाजामे पर
वह बता सकता है--
सैंतीस चकत्तियों से झांकते हुए सत्तासी छिद्रों को
जिनमें से बेशर्मी से झांकते हुए
नोच-नोच अपनी हथेली पर
क्रम से रखता है गिनते हुए
एक, दो, तीन , चार ....
अपनी पाठशाला उसे याद है
माँ रसोईं की ईंधन बन जल गई थी
और एक रात
तब से वह वहीं है
इत्मिनान से,
अपने ककहरे के साथ
और भूख से नपुंसक बने