भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वादा / अरुणाभ सौरभ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भुरभुरी रेतीली ज़मीन पर
पड़ती जेठ की धूप
नदी किनारे की तपती ज़मीन पर
भागता क़दम --
मेरा और तुम्हारा
और जेठ की दोपहरी से
अपने आप हो जाती शाम
और गहराती शाम मे
पानी की छत पर
नाव मे जुगलबन्दी करते हम
हौले-हौले बहते पानी से
सुनता कुछ –- अनबोला निर्वात -–
तुम मुझसे लिपटती
लिपट कर चूमती
चूम कर अपने नाख़ून से
मेरे वक्ष पर लिख देती
प्यार की लम्बी रक्तिम रेखा
......................................
..........सि....स...कि...याँ ....छूटने पर
तुम विदा माँगती
और जेठ की दोपहरी से
नदी किनारे से
रेतीली ज़मीन से
पानी की छत और नाव से
वादा करते कि....
       -- हम फिर मिलेंगे, साथियो !