भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वादे की रात मरहबा, आमदे - यार मेहरबाँ / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
Amitabh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:00, 21 फ़रवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वादे की रात मरहबा, आमदे-यार मेहरबाँ
जुल्फ़े-सियाह शबफ़शाँ, आरिजे़-नाज़ महचकाँ।

बर्क़े-जमाल में तेरी, ख़ुफ़्ता<ref>सोया हुआ</ref> सुकूने-बेकराँ<ref>अपार शान्ति</ref>
और मेरा दिले-तपाँ<ref>व्याकुल हृदय</ref>, आज भी है तपाँ-तपाँ।

शाम भी थी धुआँ-धुआँ हुस्न भी था उदास-उदास
याद सी आके रह गयीं दिल को कई कहानियाँ।

छेड़ के दास्ताने-ग़म, अहले-वतन के दरम्याँ
हम अभी बीच में ही थे और बदल गयी जवाँ।

अपनी ग़ज़ल में हम जिसे कहते रहे हैं बारहा
वो तेरी दास्ताँ कहाँ वो तो है ज़ेबे-दास्ताँ।

कोई न कोई बात है, उसके सुकूते-यास में
भूल गया है सब गिले, आज तो इश्के़-बदगु़मा।

रात कमाल कर गयीं, आलमे-कर्बो-दर्द में
दिल को मेरे सुला गयीं तेरी नज़र की लोरियाँ।

सरहदे-ग़ैब तक तुझे, साफ़ मिलेंगे नक़्शे-पा
पूँछ न ये फिरा हूँ मैं तेरे लिये कहाँ-कहाँ।

कहते हैं मेरी मौत पर उसको भी छीन ही लिया
इश्क़ को मुद्दतों के बाद एक मिला था तर्जुमाँ<ref>कहने वाला</ref>।

रंग जमा के उठ गयी कितने तमद्दुनो की बज़्म
याद नहीं ज़मीन को, भूल चुका है आसमा

आर्ज़ियत<ref>क्षणभंगुरता</ref> का सोज भी देख तो सोजे-आर्ज़ी
बीते हुये जुगों से पूँछ किसको सबात<ref>स्थिरता</ref> है कहाँ।

कोई नहीं जो साथ दे तेरे हरीमे-राज़ तक
बिख़रे हुये महो-नुजूम<ref>चाँद-तारे</ref>, देते हैं सब तेरा निशाँ।

जिसको भी देखिये वही बज़्म में है ग़ज़लसरा
छिड़ गयी दास्ताने-दिल, फिर बहदीसे-दीगराँ।

बीत गये हैं लाख जुग, सूये-वतन चले हुये
पहुँची है आदमी की जात, चार कदम कशाँ-कशाँ।

पाँव से फ़र्के-नाज़ तक बर्क़े-तबस्सुमे-निशात
हुस्ने-चमनफ़रोश को देख जहाँ है गुलसिताँ।

दादे-सुखनवरी मिली अबरू-ए-नाज़ उठ गये
है वही दास्ताने-दिल हुस्न भी कह उठे कि हाँ।

जैसे खिला हुआ गुलाब चाँद के पास लहलहाये
रात वह दस्ते-नाज़ में जामे-निशात अरग़वा<ref>लाल</ref>।

राज़े-वज़ूद कुछ न पूँछ, सुब्‍हे-अज़ल से आज तक
कितने यक़ीन चल बसे, कितने गुजर गये गुमाँ।

नर्गिसे-नाज़ मरहबा ज़द में है जिसकी कायनात
चुटकी में नावके-निगाह जुटी भवें कमाँ-कमाँ।

तुझ से यही कहेंगी क्या गुज़री है मुझ पर रात भर
जो मेरी आस्तीं प हैं तेरे ग़मों की सुर्खि़याँ।

हुस्ने-अज़ल की जल्वागाह आईना-ए-सुकूते-राज़
देख तो है अयाँ<ref>स्पष्ट-स्पष्ट</ref>-अयाँ पूछ तो है नेहाँ-नेहाँ।

दूर बहुत ज़मीन से पहुँची है इक किरन की चोट
नीम तबस्सुमे-खफ़ी! रह गयीं पिस के बिजलियाँ।

कितने तसव्वुरात के, कितने ही वारदात के
लालो-गुहर लुटा गया दिल है कि गंजे-शायगाँ<ref>बेहतरीन ख़जाना</ref>।

सीनो में दर्द भर दिया छेड़ के दास्ताने-हुस्न
आज तो काम कर गयी इश्क़ की उम्रे-रायगाँ।

आह फरेबे-रंगो-बू. अपनी शिकस्त आप है’
बाद नज़ारा-ए-बहार, बढ़ गयी और उदासियाँ।

ऐ मेरी शामे-इन्तेज़ार, कौन ये आ गया, लिये
ज़ुल्फो़ में एक शबे-दराज़, आँखों में कुछ कहानियाँ।

मुझको ’फ़िराक़’ याद है, पैकरे-रंगो-बू-ए-दोस्त
पाँव से ता-जबीने-नाज़, महरफ़शाँ-ओ-महचकाँ।

शब्दार्थ
<references/>