भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वानप्रस्थी ये हवाएँ / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो, साधो !
वानप्रस्थी ये हवाएँ- कहाँ जाएँ
वन नहीं हैं !

दूर तक सड़कें-इमारत
शोर है बस
धुएँ के बादल घिरे
हर ओर नीरस

सुनो, साधो !
इस नगर में सिर्फ़ हैं अंधी गुफ़ाएँ
वन नहीं हैं !

एक कोने में खड़ी हैं
ये ठगी-सी
बावरे दिन
वक्त है गदहा-पचीसी

सुनो साधो !
जल रही है झील- झुलसी हैं दिशाएँ
वन नहीं हैं !

सोचती ये
कहाँ नंदन-वन पुराने
उत्सवी आकाश
चिड़ियों के ठिकाने

सुनो, साधो !
क्यों अपाहिज हो रही हैं ये हवाएँ
वन नहीं हैं !