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वार्ता:उर का कम्पन-दोहे / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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कविता


1
प्रेमालिंगन जो बँधे, निखर गया है रूप ।
तन-मन को प्यारी लगे, ज्यों सर्दी की धूप ॥
2
बिना मिले अपने लगे, बोलो तुम हो कौन ?
सब सीमाएँ लाँघकर , किया बसेरा मौन ॥
3
भेद किनारे सब किए ,इतनी-सी पहचान ।
युगों -युगों की प्रीत मैं, मैं हूँ तेरा गान ॥
4
मैं तो कविता पीर की ,बने जो उर की हूक ।
मुझको तुम आवाज़ दो, इसीलिए हूँ मूक ॥
5
पर्वत-पर्वत मैं फिरी , घाटी और मैदान ।
हम दोनों तो एक हैं, बस इतनी पहचान ॥
6.
रिश्तों में बाँधा नहीं, रिश्ते बनते पाश ।
मैं तेरी प्यासी धरा, तुम मेरे आकाश ॥
7
मेरी व्याकुलता बढ़े ,होती तुझको पीर ।
तुझको काँटा भी चुभे, होता सदा अधीर ॥
8
मन में हर पल हो बसे, रखना अपने साथ।
इस अँधियारे मोड़ पर, छोड़ न देना हाथ ॥
9
मैं तो माँगूँ ईश से ,बस इतना वरदान ।
पलभर भी रूठे नहीं , अधरों की मुस्कान ॥
10
आँसू तेरे पी सकूँ, बस इतना अरमान ।
अधर चूम लौटा सकूँ, बिछुड़ी जो मुस्कान ॥
11
तुम जीवन की हो किरन, तुम हो मेरी आस ।
यह उदासी पोंछ दो, तुम मेरा उल्लास ॥
12
तुम हारे इस मोड़ पर, पहुँच गए जब पास ।
लाओ मुझको हाथ दो, मन कर लो आकाश॥
13
कहाँ छिपे हो आज तुम ,जीवन के मधुमास।
प्यासी आँखें टेरती, टिकी है तुझ पर आस॥
14
पथ में चट्टानें खड़ीं , बहुत बिछे हैं शूल।
मिलकर कुछ ऐसा करो, बन जाएँ सब फूल।।
15
छू ना पाए थे कभी, जिसके मन का द्वार।
उसके मन में तुम बसी,बनकर खुशबू ,प्यार।
16
छलके जिसके रोम से, जीवन की रसधार।
मैं उसको कविता कहूँ ,जग कहता है प्यार।
17
माँगा है भगवान से,तेरा सुख- संसार।
उर में तेरा वास हो, बनों गीत- रसधार।।
18
स्वर्ग खड़ा हो द्वार पर ,करता हो मनुहार।
इसके बदले माँगता, केवल तेरा प्यार।।
19
साँस -साँस में हो रहा,मुझको यह आभास।
सारे जग की सम्पदा, कविता मेरे पास।।
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