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वार्ता:ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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34 वर्षीय युवा ग़ज़लगो ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का ग़ज़ल संग्रह ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ भी पर्याप्त ध्यानाकर्षण करता है। ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र की ग़ज़ल यात्रा कोई बहुत लंबी नहीं है, इस संग्रह की ग़ज़लें वर्ष 2011 से वर्ष 2013 के बीच कही गई हैं। ग़ज़लों में भी परोक्ष रूप से उनके रोल मॉडल ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी हैं। उनके अनेक शे’र पढ़ते हुए अनायास अदम गोंडवी की याद आती है। जैसे

प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें,
रधिया करे निकाह तो दंगा कराइए।
गरीबों के लहू से जो महल अपने बनाता है
वही इस देश में मज़लूम लोगों का विधाता है।
ये मेरे देश की संसद या कोई घर है शीशे का,
जो बच्चों के भी पत्थर मारते ही टूट जाता है।

लेकिन ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र को इस कोण से देखना भर उनके ग़ज़लगो के साथ अन्याय होगा। जब वे अपनी शैली में शेरों को निकालते हैं तो चकित करते हैं। मसलन

सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है,
समंदर तृप्ति देने में सदा नाकाम होता है।

नूर सूरज से छीन लेता है,
पेड़ यूँ ही हरा नहीं होता।

अंधविश्वास, अशिक्षा यही घर घुसरापन,
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा।

‘अपनी बात’ के अंतर्गत ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र एक बड़ी मार्के की बात कहते हैं – जब तक ग़ज़ल का पदार्पण हिन्दी भाषा में हुआ, तब तक हिन्दी की ज्यादातर कविता छंदमुक्त हो चुकी थी। दुष्यंत ने उसी छंदमुक्त और मुक्त-छंद कविता के कोलाहल में ‘साए में धूप’ की अंदर तक छू जाने वाली ग़ज़लों के बिरवे रोपे, जो कालान्तर में हिन्दी ग़ज़लकारों की मुस्तैद पीढ़ियों द्वारा खाद-पानी देने से कद्दावर वृक्षों में तब्दील हुए।

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र की ग़ज़लों में नव्यता बोध के आग्रह के साथ भाव बोध और अनुभूतियों का एक ऐसा समन्वय है, जो शेरों के अर्थ को एक बड़े विस्तार में ध्वनित करता है।

धर्मेन्द्र के यहाँ वज़्न और बह्र की कुछ एक ख़ामियाँ दिखाई पड़ती हैं। उनको तीन वर्ष पुराने ग़ज़लगो होने के नाते नज़रअंदाज करते हुए, मैं उन्हें केवल एक ही सलाह देना चाहूँगा कि वे दुष्यंत और अदम की परंपरा एवं सोच से आगे निकलें।

समीक्षक : ज़हीर कुरेशी