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वार्ता:नवीन जोशी 'नवेंदु'

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/* गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ */ नया विभाग
== गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ ==
कुमांऊनी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ के काव्य में हमें तत्कालीन पहाडी़ समाज के जीवन से जुडे़ विविध पक्षों के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड (कुमाऊंनी) के आदि कवियों में एक.
जीवन परिचय : गौरी दत्त पंत "गौर्दा" (1872-1939),
 
प्रकाशित पुस्तक: श्री चारुचंद्र पांडे द्वारा संपादित ‘गौर्दा का काव्यदर्शन,’ देशभक्त प्रेस, अल्मोड़ा, 1965.)
 
जंगल,महिलाओं की दशा,समाज सुधार से लेकर स्थानीय प्रतिरोध और राष्ट्रीय आन्दोलनों तक सभी विषयों पर ‘गौर्दा‘ ने अपनी लेखनी चलाई।‘गौर्दा‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल वैद्य के साथ साथ वे गायक, संगीतज्ञ व राम लीला के भी अच्छे कलाकार थे। एक सच्चे समाज सेवी के रुप में वे पाखण्ड,छूआछूत व पाश्चात्य संस्कृति की नकल को हमेशा चुनौती देते रहते थे।
 
1.इसे छोड़ कहां जाएंगें हम
 
कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है.
तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां
सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे,
यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है,
इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे.
ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी यहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं,
पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.
सबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है,
यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी,
बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.
 
हम कोई भी अनाड़ी नहीं थे. पनघट, गोचर सब अपने थे,
उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां,
मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की
लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे.
घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे.
घसियारे और ग्वाले घर घर में भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.
 
(कुमाऊं का अभिप्राय यहां कुमाऊं कमिश्नरी से है, जिसमें तब समस्त उत्तराखंड शामिल था. कवि कविता में कुमाऊं का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहा है.)
 
मूल कुमाउनी कविता : कां जूंला यैकन छाड़ी
 
हमरो कुमाऊं, हम छौं कुमइयां, हमरीछ सब खेती बाड़ी
तराई भाबर वण बोट घट गाड़, हमरा पहाड़ पहाड़ी
यांई भयां हम यांई रूंला यांई छुटलिन नाड़ी
पितर कुड़ीछ यांई हमारी, कां जूंला यैकन छाड़ी
यांई जनम फिरि फिरि ल्यूंला यो थाती हमन लाड़ी
बद्री केदारै धामलै येछन, कसि कसि छन फुलवाड़ी
पांच प्रयाग उत्तर काशी, सब छन हमरा अध्याड़ी
सब है ठूलो हिमाचल यां छ, कैलास जैका पिछाड़ी
रूंछिया दै दूद घ्यू भरी ठेका, नाज कुथल भरी ठाड़ी
ऊंचा में रई ऊंचा छियां हम, नी छियां क्वे लै अनाड़ी
पनघट गोचर सब छिया आपुण, तार लागी नै पिछाड़ी
दार पिरूल पतेल लाकड़ो, ल्यूछियां छिलुकन फाड़ी
अखोड़ दाड़िम निमुवां नारिंग, फल रूंछिबाड़ा अघ्याड़ी
गोर भैंस बाकरा घर घर सितुकै, पाल छियां ग्वाला घसारी.
 
 
2.गले का हार वंदे मातरम
 
15 अगस्त के मौके पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘गौर्दा‘ द्वारा लिखी गयी कविता का हिंदी भावानुवाद:
 
अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को कभी भी नहीं छीन सकती है। यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है। हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए। आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है। दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है। देशभक्तो !तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे। देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है। इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम, होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।
 
मूल कुमाउनी कविता : गलहार बन्देमातरम्
 
छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम्,
हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम्।
 
हम त वी छौं जोकि हुण चैंछ हमन ये बखत पर,
आज कूंणा लागि रछ संसार बन्देमातरम्।
 
दुर्जनन को मन जली भंगार हूं छ वी बखत,
कान में जब पुजनछ झंकार बन्देमातरम् ।
 
जेल में चाखा पिसण औ भूख लै मरणा बखत,
वी बखत लै य कणि करिया प्यार बन्देमातरम्।
 
मौत का मुख में खडा़ कूणा लागा हत्यार थें,
ठोकि दे ठोठ्याड‐ में तलवार बन्देमातरम्।
 
बैदि लै नाड़ी देखी मुनलै हिलै बेर कै दियो,
यो त देषभक्ती को छ बेमार बन्देमातरम्।
 
होलि दिवाली ईद है लै लाड़िलो छ सौ गुना,
मानणे छ एक ही यो त्यार बन्देमातरम्।
 
छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम।