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वासंतिक फल / राहुल शिवाय

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नहीं क्षणों में पतझड़ बीता
औ बसंत का हुआ आगमन
सूखी डालों को क्षण भर में
नहीं मिला है वासंतिक धन

नहीं जगे ये बौर अचानक
नहीं खुशी क्षण-भर में छाई
नहीं क्षणों में इस धरती पर
मधुर-धूप ने ली अंगड़ाई

शिशिर-काल इन सबने झेला
औ संघर्ष किया पतझड़ से
जुड़े रहे ये दुखद समय में
अपने जीवन रूपी जड़ से

इसी तरह जीवन का पतझड़
समय बीतते है टल जाता
विपदा से जो लड़ बचता है
वह ही वासंतिक फल खाता