Last modified on 4 अप्रैल 2015, at 17:55

वास्ता / प्रतिभा सक्सेना

सिहर उठी सृष्टि,
धुरी पर घूमते पिण्ड सहम गये,
श्री-हत दिशाएँ,
स्तब्ध हवाएँ,
एक वीभत्स वार-
सद्य-जात कंठ की घुटी चीख,
पीड़ा से मरोड़ खाती नन्हीं देह छोड़
उड़ते प्राण-पखेरू!


प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट कारीगरी
मिल गई मिट्टी में
धरा के अंतस्तल से उठी कराह,
छाती चीरती एक और दरार डाल गई .
एक लड़की इस दुनिया में रहे, न रहे,
किसी को क्या फ़र्क पड़ता है!


बची रह जाती,
क्या पता, तो भी
दो-चार भूखे नर-पशुओँ की शिकार बन नुचती,
भट्टी में फुँकती या तेज़ाब से दहती .
कौन रोकने-टोकनेवाला .
स्वयं को पुरुष कहता पशु,
नारी की देह कैसे छोड़ सकता है!


अपनी मनमानी कर
कर्ज़ वसूलेगा जीवन भर .
किराए पर उठाए, बेचे, नचाये,
जी भरे तो धमकी-
चली जाओ, चाहे जहाँ,
आजिज़ आ गया हूँ तुमसे.
अच्छी तरह जानता है-
जायेगी कहाँ ?
सिर छिपाने को कोई घर नहीं उसका
अपनी कोई जगह नहीं,
दीन बनी रहेगी यहीं .
अपने हित का जुआ
स्त्री के काँधे धर
बिलकुल निश्चिंत!


पर तभी तक
ओ नारी,
जब तक तुम भरमाई हो.
जागती नहीं, चेतती नहीं,
मिथ्यादर्शों का लबादा ओढ़ दुबकी हो,
परंपरा की गहरी खाई में .


जागो,
उठ खड़ी हो!
वह निरा दंभी
कुछ नहीं कर सकेगा,
अहंकारी हो कितना भी
अपने आप में क्या है,
समझो,
फिर पहचानो अपना स्वरूप!


किसका भय ?
तुम दुर्बल नहीं,
तुम विवश नहीं,
तुम नगण्य नहीं
धरा की सृष्टा,
निज को पहचानो!


अतिचारों का कैंसर,
पनप रहा दिन-दिन,
विकृत सड़न फैलाता .
निष्क्रिय करना होगा
तुम्हें ही वार करना होगा,
निरामय सृजन के
दायित्व का
वास्ता तुमको .


लोरी भर जीवन-मंत्र,
पीढ़ियाँ पोसता आँचल-भरा अमृत-तंत्र धर,
कोख को लजाना मत!
रहो शीष उठाए
अपने सहज, अकुंठित स्वरूप में,
अन्यथा विषगाँठ का पसरता दूषण,
और धरती का छीजता तन,
मृत पिंड सा
अंतरिक्ष में टूट-बिखर
विलीन हो जाएगा!