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विकास / सुमित्रानंदन पंत

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नीली नीहारीकाएँ
शिखरों की हैं,
हरीतिमाएँ
घाटियों की !

जिनके आर-पार
रश्मि छाया सेतु बान्ध
तुम आती-जाती हो !

अन्तः सौरभ से खिंच
भौरों की भीड़
तुम्हें घेरे
गूँजती रहती है !

और

ये सदियों के खण्डहर हैं !
जहाँ देह मन प्राण
बासी अन्धकार की सड़ान्ध में
दिवान्धों-से
औन्धे मुँह लटके हैं !

झिल्लियों की सेना
अन्तर पुकार को रौंद
चीत्कार भरती हैं ।

एक दिन में
मीनारें मेहराबें
कैसे उग आएँगी ?
कि रश्मि रेखाओं से
दीपित की जा सके !
हैं ऐसे विद्युतदीप
मन का अन्धकार
मिटा सकें ?

जो विज्ञान,
देह भले ही
वायुयान में उड़े,
मन अभी
ठेले, बैलगाड़ी पर ही
धक्के खाता है !

हाय री, रूढ़िप्रिय
जड़ते,
तेरी पशुओं की-सी
साशंक, त्रस्त चितवन देख
दया आती है !