Last modified on 8 अगस्त 2008, at 21:32

विक्षोभ / महेन्द्र भटनागर

इच्छाएँ हमारी —
त्रस्त हैं,
उद्विग्न हैं,
आकार पाने के लिए !

आसंग इच्छाएँ —
जिन्हें हमने
बड़े ही यत्न से
गोपन-सुरक्षित स्थान पर रक्खा सदा
वांछित अनागत की प्रतीक्षा में !

विविक्षित भावनाएँ
आकुलित हैं,
आक्रमित हैं,
वास्तविक अनुभूति का
आधार पाने के लिए !

पर, वायुमण्डल में
न जाने किस तरह की
अश्रुवाही वाष्प है परिव्याप्त ;
जिससे हम विवश हैं
मूक रोने के लिए,
आक्रोश तृष्णा भार
ढोने के लिए !