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विछोहाग्नि / जितेंद्र मोहन पंत

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मैं विछोह की अग्नि में जलता मुझे बचा ले
आह! गर्म है इतनी भारी तू ठंडक दे ।।

बन संजीवन औषधि भर मन के घावों को
बुझा अग्नि को, कर दे शांत भड़की आहों को ।।

बन घनघोर बरस जा तू जलती राहों में
स्थिर शांति भर मेरे उमड़ सागर भावों में ।।

बह मलय पवन की भांति, दर्प सभी सहलाने
सुना मधुर-लय मेरे भावुक मन को बहलाने ।।