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विदा का क्षण / अज्ञेय

 नहीं! विदा का क्षण
समझ में नहीं आता।
कहने के लिए बोल नहीं मिलते।
और बोल नहीं हैं तो
कैसे कहूँ कि सोच कुछ सकता हूँ?
केवल एक अन्धी काली घुमड़न
जो बरस कर सरसा सकती है
सब डुबा सकती है
या जो बहिया बन कर सब समेटती हुई
पीछे एक मरु-बंजर भर
छोड़ जा सकती है।
नहीं, विदा का क्षण
समझ में नहीं आता, नहीं आता।

1975