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विध्वंस / राकेश रेणु

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प्रथमेश गणेश ने दे मारी है सूँढ़
धरती के बृहद नगाड़े पर
और दसों दिशाओं में गूँजने लगी है
नगाड़े की आवाज़ – ढमढम ढमढम ।

आधी रात निकल पड़े हैं धर्मवीरों के झुण्ड
तरह तरह के रूप धरे
इस बृहद ढमढम की संगत में
मुख्य मार्गों को रौंदते
टेम्पो, ट्रकों, दैत्याकार वाहनों में
अपनी आवाज़ बहुगुणित करते

वे लाएँगे – लाकर मानेंगे
एक नया युग – धर्मयुग, पृथ्वी पर
निर्णायक है समय, साल
यहीं से आरम्भ होना है नवयुग

तैयारी शुरू कर दी गई है समय रहते —
बस अभी, यहीं, इसी रात से।

इस युग में कुछ न होगा धर्म के सिवा
केवल एक रँग उगेगा
सूरज के साथ चलेगा एक रँग

पसर जाएगा आसमान में
छीनते हुए उसका नीलापन
पहाड़ों से छीन लेगा धूसर रंग
धरती से छीनी जा सकती है हरीतिमा

वे जो रँग न पाएँगे
उस एक पवित्र रँग में
ओढ़ा दिया जाएगा उनपर
लाल रँग रक्तिम
धरती की उर्वरा बढ़ाएँगे वे अपने रक्त से ।

महाद्वीप के इस भूभाग की धरती
सुनेगी केवल एक गीत, एक लय, एक सुर में
ओढ़ेगी अब महज एक रँग

एक सा पहनेगी
बोलेगी एक सी भाषा में एक सी बात
मतभेद की कोई गुँजाइश नहीं रह जाएगी
गाएगी एक सुर में धर्मगान ।

कोई दूसरा रँग, राग-लय-गान
बचा न रहेगा — बचने न पाएगा
धरती करेगी एक सुर में विलाप !