भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विनयावली / तुलसीदास / पद 81 से 90 तक / पृष्ठ 3

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:55, 28 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=81 …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद 85 से 86 तक

((85)

 मन! माधवको नेकु निहारहि।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।।

सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
रंजन संत, अखिल अघ-गंजन , भंजन बिषय-बिकारहि।।
 
जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयेा चहै भव-पारहि।
तौ जानि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि।।

(86)

इहै कहृयो सुत! ब्ेाद चहूूँ ।
श्रीरघुवीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ।।
 
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तुउ भजन करत अजहूँ।।

जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
हरि -पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ।।

करूनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा संवतहूँ।।
और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ।।

सुरूचि कह्यो सेाइ सत्य तात अति परूष बचन जबहूँ।।
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ।।