भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विभाजितों के प्रति / हरिवंशराय बच्‍चन

Kavita Kosh से
Tusharmj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:47, 24 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्‍चन }} दग्‍ध होना ही अगर इस आग में …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


दग्‍ध होना ही

अगर इस आग में है

व्‍यर्थ है डर,

पाँव पीछे को हटाना

व्‍यर्थ बावेला मचाना।


पूछ अपने आप से

उत्‍तर मुझे दो,

अग्नियुत हो?

बग्नियुत हो?


आग अलिंगन करे

यदि आग को

किसलिए झिझके?

चाहिए उसको भुजा भर

और भभके!


और अग्नि

निरग्नि को यदि

अंग से अपने लगाती,

और सुलगाती, जलाती,

और अपने-सा बनाती,

तो सौभाग्‍य रेखा जगमगाई-

आग जाकर लौट आई!


किन्‍तु शायद तुम कहोगे

आग आधे,

और आधे भाग पानी।

तुम पवभाजन की, द्विधा की,

डरी अपने आप से,

ठहरी हुई-सी हो कहानी।

आग से ही नहीं

पानी से डरोगे,

दूर भागोगे,

करोगे दीन क्रंदन,

पूर्व मरने के

हजार बार मरोगे।


क्‍यों कि जीना और मरना

एकता ही जानती है,

वह बिभाजन संतुलन का

भेद भी पहचानत‍ी है।