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विराम / उमा अर्पिता

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एक तलाश, जो
तुमसे शुरू हुई थी, अब
अँधेरे रास्तों में बदल गई है…
रोक ली हैं उसकी राहें
सामाजिक मान्यताओं की कंटीली बाड़ों ने!

सप्तपदी की लक्ष्मण रेखा
कहीं खिंच जाती है/तन के साथ-साथ
मन पर भी, और तब उसे लाँघ पाना
मुश्किल ही नहीं, असंभव भी होता है!

यह सब जानते हुए भी
क्यों भटक जाता है मन?
क्यों अँधेरी राहों के पार भी
तलाशता है उजाले के बिंदु?
क्यों नहीं मान लेता कि
तुमसे शुरू हुई तलाश पर
अब विराम लगा देना ही बेहतर है!