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विलावल. / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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225.

जव हरि हितू सबै हितकारी।टेक।
पशु पंछी जल तंजु जहालो, देव असुर नर नारी।
तृन आदिक वन घन घर बाहर, अग्नि पवन पर्वत झारी।
धरति अकास सूर शशि निशिदिन, मन वच कर्म करत रखवारी॥
दूत भूत ग्रहचित्रगुप्त यम, धर्मराय अरु आदि कुमारी।
शेष सुरेश गनेश गनत गुन, वेद विरंचि विष्णु त्रिपुरारी॥
सबमँ सोइ सकल ताहीमेँ, संत अनन्त कहो युग चारी।
धरनी कहत सुनो भइ संतो, मोहि परतीति परोय हिपारी॥1॥

226.

कौन कहै बिनु देखी बात।
अनदेखी की कौन चलावै, देखि कहे जग नहि पतियात।
अनबोले ते रहे अमोले, बोले बोल मोल ठहरात।
पूरो परै तबहिँ पद पूरो, ओछ उलटि लपटात।
जब मुख मूँदि रहो तो रहो नहि, जस विरिधाके पाके पात।
बोले बाद विवाद बढ़तु है, ताते मो मन मौन सोहात।
बिनु चख निरखि बिना मुख बोलै, बिनु सखन सुनि हिय हुलसात।
ऐसी रहनि गहनि जिन पाओ, धरनी दास तासुप बलिजात॥2॥

227.

धन साँचा भई। गुरु हमार।
धनि जेहि मन आओ इतवार। धनि मातु पिता परिवार।
गहि वैराग तजै संसार।...
धनि जा हृदये हरि विश्वास। धनि जेहि प्रगटे जोति प्रकास॥
धरनी चहुँ दिशि धनि धनि होय। सतगुरु सरन भजै जो कोय॥3॥