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|रचनाकार=जानकीवल्लभ शास्त्री
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अश्रु-'कण' कहकर जिसे
::::मैंने बहाया हाय !
सूक्ष्म रूप धरे वही था -
::::हृदयहारी हास !::::कितना निठुर यह उपहास !
स्वप्न-सुख की आस में
वह गया नित लौट -
शत-शत बार आकर पास !
::::कितना निठुर यह उपहास !:::::('रूप-अरूप)
</poem>
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