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<poem>
'जन्मसिद्ध अधिकार मनुज का न्याय-शान्ति पाने का
स्वतंत्रता का, सुख का, जीने का, हँसने-गाने का
अवसर की समता का, मनचाहे जीवन-यापन का
अमृत निकाल बाँट देते जो, आप गरल पीते हैं
किसने छीन लिया इनका अधिकार मनुज रहने का?
कैसे बन अभ्यास गया अपमान-घृणा सहने का?'
. . .
करता था विचार यों बैठा एक पथिक एकाकी
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