{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कबीर}}{{KKPageNavigation|पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ३ |आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ५ |सारणी=दोहावली / कबीर}}{{KKCatDoha}}<poem>सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । <BR/>तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ <BR/><BR/>
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । <BR/>मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ <BR/><BR/>
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । <BR/>पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ <BR/><BR/>
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । <BR/>सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ <BR/><BR/>
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । <BR/>जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । <BR/>सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ <BR/><BR/>
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । <BR/>सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ <BR/><BR/>कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । <BR/>सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जग की जो कहैमाया पापरगी, भौ जलि बूड़ै दास फंध ले बैठी हाटि । <BR/>पारब्रह्म पति छांड़ि करिसब जग तौ फंधै पड्या, करै मानि की आस गया कबीर काटि ॥ 309 308 ॥ <BR/><BR/>
बुगली नीर बिटालियाकबीर जग की जो कहै, सायर चढ़या कलंक भौ जलि बूड़ै दास । <BR/>और पखेरू पी गयेपारब्रह्म पति छांड़ि करि, हंस न बौवे चंच करै मानि की आस ॥ 310 309 ॥ <BR/><BR/>
कबीर इस संसार काबुगली नीर बिटालिया, झूठा माया मोह सायर चढ़या कलंक । <BR/>जिहि धारि जिता बाधावणाऔर पखेरू पी गये, तिहीं तिता अंदोह हंस न बौवे चंच ॥ 311 310 ॥ <BR/><BR/>
माया तजी तौ क्या भयाकबीर इस संसार का, मानि तजि नही जाइ झूठा माया मोह । <BR/>मानि बड़े मुनियर मिलेजिहि धारि जिता बाधावणा, मानि सबनि को खाइ तिहीं तिता अंदोह ॥ 312 311 ॥ <BR/><BR/>
करता दीसै कीरतनमाया तजी तौ क्या भया, ऊँचा करि करि तुंड मानि तजि नही जाइ । <BR/>जाने-बूझै कुछ नहींमानि बड़े मुनियर मिले, यौं ही अंधा रुंड मानि सबनि को खाइ ॥ 313 312 ॥ <BR/><BR/>
कबीर पढ़ियो दूरि करिकरता दीसै कीरतन, पुस्तक देइ बहाइ ऊँचा करि करि तुंड । <BR/>बावन आषिर सोधि करिजाने-बूझै कुछ नहीं, ररै मर्मे चित्त लाइ यौं ही अंधा रुंड ॥ 314 313 ॥ <BR/><BR/>
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलोकबीर पढ़ियो दूरि करि, पाढ़िबा थे भलो जोग पुस्तक देइ बहाइ । <BR/>राम-नाम सूं प्रीती बावन आषिर सोधि करि, भल भल नींयो लोग ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 315 314 ॥ <BR/><BR/>
पद गाएं मन हरषियांमैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, साषी कह्मां अनंद पाढ़िबा थे भलो जोग । <BR/>सो तत नांव न जाणियांराम-नाम सूं प्रीती करि, गल में पड़िया फंद भल भल नींयो लोग ॥ 316 315 ॥ <BR/><BR/>
जैसी मुख तै नीकसैपद गाएं मन हरषियां, तैसी चाले चाल साषी कह्मां अनंद । <BR/>पार ब्रह्म नेड़ा रहैसो तत नांव न जाणियां, पल गल में करै निहाल पड़िया फंद ॥ 317 316 ॥ <BR/><BR/>
काजी-मुल्ला भ्रमियांजैसी मुख तै नीकसै, चल्या युनीं कै साथ तैसी चाले चाल । <BR/>दिल थे दीन बिसारियांपार ब्रह्म नेड़ा रहै, करद लई जब हाथ पल में करै निहाल ॥ 318 317 ॥ <BR/><BR/>
प्रेमकाजी-प्रिति का चालनामुल्ला भ्रमियां, पहिरि कबीरा नाच चल्या युनीं कै साथ । <BR/>तन-मन तापर वारहुँदिल थे दीन बिसारियां, जो कोइ बौलौ सांच करद लई जब हाथ ॥ 319 318 ॥ <BR/><BR/>
सांच बराबर तप नहींप्रेम-प्रिति का चालना, झूठ बराबर पाप पहिरि कबीरा नाच । <BR/>जाके हिरदै में तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 319 ॥ <BR/><BR/>
खूब खांड है खीचड़ीसांच बराबर तप नहीं, माहि ष्डयाँ टुक कून झूठ बराबर पाप । <BR/>देख पराई चूपड़ीजाके हिरदै में सांच है, जी ललचावे कौन ताके हिरदै हरि आप ॥ 321 320 ॥ <BR/><BR/>
साईं सेती चोरियाँखूब खांड है खीचड़ी, चोरा सेती गुझ माहि ष्डयाँ टुक कून । <BR/>जाणैंगा रे जीवएगादेख पराई चूपड़ी, मार पड़ैगी तुझ जी ललचावे कौन ॥ 322 321 ॥ <BR/><BR/>
तीरथ तो सब बेलड़ीसाईं सेती चोरियाँ, सब जग मेल्या छाय चोरा सेती गुझ । <BR/>कबीर मूल निकंदियाजाणैंगा रे जीवएगा, कौण हलाहल खाय मार पड़ैगी तुझ ॥ 323 322 ॥ <BR/><BR/>
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय । <BR/>सूवै सैंबल सेवियाकबीर मूल निकंदिया, यौ जग चल्या निरास कौण हलाहल खाय ॥ 324 323 ॥ <BR/><BR/>
जेती देखौ आत्मजप-तप दीसैं थोथरा, तेता सालिगराम तीरथ व्रत बेसास । <BR/>राधू प्रतषि देव हैसूवै सैंबल सेविया, नहीं पाथ सूँ काम यौ जग चल्या निरास ॥ 325 324 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दुनिया देहुरैजेती देखौ आत्म, सीत नवांवरग जाइ तेता सालिगराम । <BR/>हिरदा भीतर हरि बसैराधू प्रतषि देव है, तू ताहि सौ ल्यो लाइ नहीं पाथ सूँ काम ॥ 326 325 ॥ <BR/><BR/>
मन मथुरा दिल द्वारिकाकबीर दुनिया देहुरै, काया कासी जाणि सीत नवांवरग जाइ । <BR/>दसवां द्वारा देहुराहिरदा भीतर हरि बसै, तामै जोति पिछिरिग तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 327 326 ॥ <BR/><BR/>
मेरे संगी दोइ जरगमन मथुरा दिल द्वारिका, एक वैष्णौ एक राम काया कासी जाणि । <BR/>वो है दाता मुक्ति कादसवां द्वारा देहुरा, वो सुमिरावै नाम तामै जोति पिछिरिग ॥ 328 327 ॥ <BR/><BR/>
मथुरा जाउ भावे द्वारिकामेरे संगी दोइ जरग, भावै जाउ जगनाथ एक वैष्णौ एक राम । <BR/>साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ <BR/><BR/>कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । <BR/>दुर्मति दूरि बंबाइसीवो है दाता मुक्ति का, देसी सुमति बताइ वो सुमिरावै नाम ॥ 330 328 ॥ <BR/><BR/>
उज्जवल देखि न धीजियेमथुरा जाउ भावे द्वारिका, वग ज्यूं माडै ध्यान भावै जाउ जगनाथ । <BR/>धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 331 329 ॥ <BR/><BR/>
जेता मीठा बोलरगाकबीर संगति साधु की, तेता साधन जारिग बेगि करीजै जाइ । <BR/>पहली था दिखाइ करिदुर्मति दूरि बंबाइसी, उडै देसी आरिग सुमति बताइ ॥ 332 330 ॥ <BR/><BR/>
जानि बूझि सांचहिं तर्जेउज्जवल देखि न धीजिये, करै झूठ सूँ नेहु वग ज्यूं माडै ध्यान । <BR/>ताकि संगति राम जीधीर बौठि चपेटसी, सुपिने ही पिनि देहु यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 333 331 ॥ <BR/><BR/>
कबीर तास मिलाइजेता मीठा बोलरगा, जास हियाली तू बसै तेता साधन जारिग । <BR/>नहिंतर बेगि उठाइपहली था दिखाइ करि, नित का गंजर को सहै उडै देसी आरिग ॥ 334 332 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा बन-बन मे फिराजानि बूझि सांचहिं तर्जे, कारणि आपणै राम करै झूठ सूँ नेहु । <BR/>ताकि संगति राम सरीखे जन मिलेजी, तिन सारे सवेरे काम सुपिने ही पिनि देहु ॥ 335 333 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन पंषो भयातास मिलाइ, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय जास हियाली तू बसै । <BR/>जो जैसी संगति करैनहिंतर बेगि उठाइ, सो तैसे फल खाइ नित का गंजर को सहै ॥ 336 334 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा खाई कोट किबन-बन मे फिरा, पानी पिवै न कोई कारणि आपणै राम । <BR/>जाइ मिलै जब गंग सेराम सरीखे जन मिले, तब गंगोदक होइ तिन सारे सवेरे काम ॥ 337 335 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । <BR/>
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । <BR/>कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ <BR/><BR/> हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
हरिजन सेती रुसणाकबीर मारू मन कूँ, संसारी सूँ हेत टूक-टूक है जाइ । <BR/>ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ <BR/><BR/>काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । <BR/>बलिहारी ता दास विव कीक्यारी बोइ करि, पैसिर निकसण हार लुणत कहा पछिताइ ॥ 341 353 ॥ <BR/><BR/>
पाणी हीतै पातलाकागद केरी नाव री, धुवाँ ही तै झीण पाणी केरी गंग । <BR/>पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कहै कबीर कीन्ह कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 342 354 ॥ <BR/><BR/>
आसा का ईंधण करूँमैं मन्ता मन मारि रे, मनसा करूँ बिभूति घट ही माहैं घेरि । <BR/>जोगी फेरी फिल करूँजबहीं चालै पीठि दे, यौं बिनना वो सूति अंकुस दै-दै फेरि ॥ 343 355 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मारू मन कूँमनह मनोरथ छाँड़िये, टूक-टूक है जाइ तेरा किया न होइ । <BR/>विव की क्यारी बोइ करिपाणी में घीव नीकसै, लुणत कहा पछिताइ तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 353 356 ॥ <BR/><BR/>
कागद केरी नाव रीएक दिन ऐसा होएगा, पाणी केरी गंग सब सूँ पड़े बिछोइ । <BR/>कहै कबीर कैसे तिरूँराजा राणा छत्रपति, पंच कुसंगी संग सावधान किन होइ ॥ 354 357 ॥ <BR/><BR/>
मैं मन्ता मन मारि रेकबीर नौबत आपणी, घट ही माहैं घेरि दिन-दस लेहू बजाइ । <BR/>जबहीं चालै पीठि देए पुर पाटन, अंकुस दै-दै फेरि ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 355 358 ॥ <BR/><BR/>
मनह मनोरथ छाँड़ियेजिनके नौबति बाजती, तेरा किया न होइ भैंगल बंधते बारि । <BR/>पाणी में घीव नीकसैएकै हरि के नाव बिन, तो रूखा खाइ न कोइ गए जनम सब हारि ॥ 356 359 ॥ <BR/><BR/>
एक दिन ऐसा होएगाकहा कियौ हम आइ करि, सब सूँ पड़े बिछोइ कहा कहैंगे जाइ । <BR/>राजा राणा छत्रपतिइत के भये न उत के, सावधान किन होइ चलित भूल गँवाइ ॥ 357 360 ॥ <BR/><BR/>
कबीर नौबत आपणीबिन रखवाले बाहिरा, दिन-दस लेहू बजाइ चिड़िया खाया खेत । <BR/>ए पुर पाटन, ए गलीआधा-परधा ऊबरै, बहुरि न देखै आइ चेति सकै तो चैति ॥ 358 361 ॥ <BR/><BR/>
जिनके नौबति बाजतीकबीर कहा गरबियौ, भैंगल बंधते बारि काल कहै कर केस । <BR/>एकै हरि के नाव बिनना जाणै कहाँ मारिसी, गए जनम सब हारि कै धरि के परदेस ॥ 359 362 ॥ <BR/><BR/>
कहा कियौ हम आइ करिनान्हा कातौ चित्त दे, कहा कहैंगे जाइ महँगे मोल बिलाइ । <BR/>इत के भये गाहक राजा राम है, और न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ <BR/><BR/>बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत । <BR/>आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति नेडा आइ ॥ 361 363 ॥ <BR/><BR/>
कबीर कहा गरबियौउजला कपड़ा पहिरि करि, काल कहै कर केस पान सुपारी खाहिं । <BR/>ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि एकै हरि के परदेस नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 362 364 ॥ <BR/><BR/>
नान्हा कातौ चित्त देकबीर केवल राम की, महँगे मोल बिलाइ तू जिनि छाँड़ै ओट । <BR/>गाहक राजा राम हैघण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, और न नेडा आइ घणी सहै सिर चोट ॥ 363 365 ॥ <BR/><BR/>
उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि । <BR/>एकै हरि के नाव बिनकब लग राखौ हे सखी, बाँधे जमपुरि जाहिं रुई लपेटी आगि ॥ 364 366 ॥ <BR/><BR/>
कबीर केवल राम माला मन की, तू जिनि छाँड़ै ओट और संसारी भेष । <BR/>घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँमाला पहरयां हरि मिलै, घणी सहै सिर चोट तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 365 367 ॥ <BR/><BR/>
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ । <BR/>कब लग राखौ हे सखीमन माला को फैरता, रुई लपेटी आगि जग उजियारा सोइ ॥ 366 368 ॥ <BR/><BR/>
कबीर माला मन कीकैसो कहा बिगाड़िया, और संसारी भेष जो मुंडै सौ बार । <BR/>माला पहरयां हरि मिलैमन को काहे न मूंडिये, तौ अरहट कै गलि देखि जामे विषम-विकार ॥ 367 369 ॥ <BR/><BR/>
माला पहिरै मनभुषीपहरयां कुछ नहीं, ताथै कछू भगति न होइ आई हाथ । <BR/>मन माला को फैरतामाथौ मूँछ मुंडाइ करि, जग उजियारा सोइ चल्या जगत् के साथ ॥ 368 370 ॥ <BR/><BR/>
कैसो कहा बिगाड़ियाबैसनो भया तौ क्या भया, जो मुंडै सौ बार बूझा नहीं बबेक । <BR/>मन को काहे न मूंडियेछापा तिलक बनाइ करि, जामे विषम-विकार दगहया अनेक ॥ 369 371 ॥ <BR/><BR/>
माला पहरयां कुछ नहींस्वाँग पहरि सो रहा भया, भगति न आई हाथ खाया-पीया खूंदि । <BR/>माथौ मूँछ मुंडाइ करिजिहि तेरी साधु नीकले, चल्या जगत् के साथ सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 370 372 ॥ <BR/><BR/>
बैसनो भया तौ क्या भयाचतुराई हरि ना मिलै, बूझा नहीं बबेक ए बातां की बात । <BR/>छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥ <BR/><BR/>स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । <BR/>जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 372 373 ॥ <BR/><BR/>
चतुराई हरि ना मिलैएष ले बूढ़ी पृथमी, ए बातां झूठे कुल की बात लार । <BR/>एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 373 374 ॥ <BR/><BR/>
एष ले बूढ़ी पृथमीकबीर हरि का भावता, झूठे कुल की लार झीणां पंजर । <BR/>अलष बिसारयो भेष मेंरैणि न आवै नींदड़ी, बूड़े काली धार अंगि न चढ़ई मांस ॥ 374 375 ॥ <BR/><BR/>
कबीर हरि का भावतासिंहों के लेहँड नहीं, झीणां पंजर हंसों की नहीं पाँत । <BR/>रैणि न आवै नींदड़ीलालों की नहि बोरियाँ, अंगि साध न चढ़ई मांस चलै जमात ॥ 375 376 ॥ <BR/><BR/>
सिंहों के लेहँड नहींगाँठी दाम न बांधई, हंसों की नहीं पाँत नहिं नारी सों नेह । <BR/>लालों कह कबीर ता साध की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात हम चरनन की खेह ॥ 376 377 ॥ <BR/><BR/>
गाँठी दाम न बांधईनिरबैरी निहकामता, नहिं नारी सों साईं सेती नेह । <BR/>कह कबीर ता साध कीविषिया सूं न्यारा रहै, हम चरनन की खेह संतनि का अंग सह ॥ 377 378 ॥ <BR/><BR/>
निरबैरी निहकामताजिहिं हिरदै हरि आइया, साईं सेती नेह सो क्यूं छाना होइ । <BR/>विषिया सूं न्यारा रहैजतन-जतन करि दाबिये, संतनि का अंग सह तऊ उजाला सोइ ॥ 378 379 ॥ <BR/><BR/>
जिहिं हिरदै हरि आइयाकाम मिलावे राम कूं, सो क्यूं छाना होइ जे कोई जाणै राखि । <BR/>जतन-जतन करि दाबियेकबीर बिचारा क्या कहै, तऊ उजाला सोइ जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 379 380 ॥ <BR/><BR/>
काम मिलावे राम कूंवियोगी तन बिकल, जे ताहि न चीन्हे कोई जाणै राखि । <BR/>कबीर बिचारा क्या कहैतंबोली के पान ज्यूं, जाकि सुख्देव बोले साख दिन-दिन पीला होई ॥ 380 381 ॥ <BR/><BR/>
पावक रूपी राम वियोगी तन बिकलहै, ताहि न चीन्हे कोई घटि-घटि रह्या समाइ । <BR/>तंबोली के पान ज्यूंचित चकमक लागै नहीं, दिनताथै घूवाँ है-दिन पीला होई है जाइ ॥ 381 382 ॥ <BR/><BR/>
पावक रूपी राम हैफाटै दीदै में फिरौं, घटि-घटि रह्या समाइ नजिर न आवै कोई । <BR/>चित चकमक लागै नहींजिहि घटि मेरा साँइयाँ, ताथै घूवाँ है-है जाइ सो क्यूं छाना होई ॥ 382 383 ॥ <BR/><BR/>
फाटै दीदै में फिरौंहैवर गैवर सघन धन, नजिर न आवै कोई छत्रपती की नारि । <BR/>जिहि घटि मेरा साँइयाँतास पटेतर ना तुलै, सो क्यूं छाना होई हरिजन की पनिहारि ॥ 383 384 ॥ <BR/><BR/>
हैवर गैवर सघन धनजिहिं धरि साध न पूजि, छत्रपती हरि की नारि सेवा नाहिं । <BR/>तास पटेतर ना तुलैते घर भड़धट सारषे, हरिजन की पनिहारि भूत बसै तिन माहिं ॥ 384 385 ॥ <BR/><BR/>
जिहिं धरि साध न पूजिकबीर कुल तौ सोभला, हरि की सेवा नाहिं जिहि कुल उपजै दास । <BR/>ते घर भड़धट सारषेजिहिं कुल दास न उपजै, भूत बसै तिन माहिं सो कुल आक-पलास ॥ 385 386 ॥ <BR/><BR/>
कबीर कुल तौ सोभलाक्यूं नृप-नारी नींदिये, जिहि कुल उपजै दास क्यूं पनिहारी कौ मान । <BR/>जिहिं कुल दास न उपजैवा माँग सँवारे पील कौ, सो कुल आक-पलास या नित उठि सुमिरैराम ॥ 386 387 ॥ <BR/><BR/>
क्यूं नृप-नारी नींदियेकाबा फिर कासी भया, क्यूं पनिहारी कौ मान राम भया रे रहीम । <BR/>वा माँग सँवारे पील कौमोट चून मैदा भया, या नित उठि सुमिरैराम बैठि कबीरा जीम ॥ 387 388 ॥ <BR/><BR/>
काबा फिर कासी भयादुखिया भूखा दुख कौं, राम भया रे रहीम सुखिया सुख कौं झूरि । <BR/>मोट चून मैदा भयासदा अजंदी राम के, बैठि कबीरा जीम जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 388 389 ॥ <BR/><BR/>
दुखिया भूखा दुख कौंकबीर दुबिधा दूरि करि, सुखिया सुख कौं झूरि एक अंग है लागि । <BR/>सदा अजंदी राम केयहु सीतल बहु तपति है, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि दोऊ कहिये आगि ॥ 389 390 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दुबिधा दूरि करिका तू चिंतवै, एक अंग है लागि का तेरा च्यंत्या होइ । <BR/>यहु सीतल बहु तपति हैअण्च्यंत्या हरिजी करै, दोऊ कहिये आगि जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 390 391 ॥ <BR/><BR/>
कबीर का तू चिंतवैभूखा भूखा क्या करैं, का तेरा च्यंत्या होइ कहा सुनावै लोग । <BR/>अण्च्यंत्या हरिजी करैभांडा घड़ि जिनि मुख यिका, जो तोहि च्यंत न होइ सोई पूरण जोग ॥ 391 392 ॥ <BR/><BR/>
भूखा भूखा क्या करैंरचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा सुनावै लोग रोइ । <BR/>भांडा घड़ि जिनि मुख यिकादिल मंदि मैं पैसि करि, सोई पूरण जोग ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 392 393 ॥ <BR/><BR/>
रचनाहार कूं चीन्हि लैकबीर सब जग हंडिया, खैबे कूं कहा रोइ मांदल कंधि चढ़ाइ । <BR/>दिल मंदि मैं पैसि करिहरि बिन अपना कोउ नहीं, ताणि पछेवड़ा सोइ देखे ठोकि बनाइ ॥ 393 394 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सब जग हंडियामांगण मरण समान है, मांदल कंधि चढ़ाइ बिरता बंचै कोई । <BR/>हरि बिन अपना कोउ नहींकहै कबीर रघुनाथ सूं, देखे ठोकि बनाइ मति रे मंगावे मोहि ॥ 394 395 ॥ <BR/><BR/>
मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह । <BR/>कहै कबीर रघुनाथ सूंए सबहीं अहला गया, मति रे मंगावे मोहि जबही कह्या कुछ देह ॥ 395 396 ॥ <BR/><BR/>
मानि महतम प्रेमसंत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-रस गरवातण गुण नेह तेइ । <BR/>ए सबहीं अहला गयासाईं सूं सनमुख रहै, जबही कह्या कुछ देह जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 396 397 ॥ <BR/><BR/>
संत न बांधै गाठड़ीकबीर संसा कोउ नहीं, पेट समाता-तेइ हरि सूं लाग्गा हेत । <BR/>साईं काम-क्रोध सूं सनमुख रहैझूझणा, जहाँ माँगे तहां देइ चौडै मांड्या खेत ॥ 397 398 ॥ <BR/><BR/>
कबीर संसा कोउ नहींसोई सूरिमा, हरि सूं लाग्गा हेत मन सूँ मांडै झूझ । <BR/>काम-क्रोध सूं झूझणापंच पयादा पाड़ि ले, चौडै मांड्या खेत दूरि करै सब दूज ॥ 398 399 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सोई सूरिमाजिस मरनै यैं जग डरै, मन सूँ मांडै झूझ सो मेरे आनन्द । <BR/>पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 399 400 ॥ <BR/><BR/>
जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द । <BR[[कबीर दोहावली /पृष्ठ ५|अगला भाग >कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ <BR/><BR/>]]