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प्रस्तावना/ मनोज श्रीवास्तव

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''' प्रस्तावना '''
हिन्दी कविता के बहु-परिवर्तनकारी दौर में अर्थात वर्ष १९४० के बाद से, विविध प्रयोगधर्मी प्रवृत्तियों के कारण अधिकाँश कवितायेँ शनै: शनै: अंतर्मुखी, व्यक्तिपरक, रहस्यमयी, आत्मप्रवंचनात्मक और स्वांत: सुखाय होती गईं. बेशक सातवें दशक तक, कविताओं में बोधात्मकता बनी हुई थी और पाठक उनके पठन-पाठन से उतना उचाट नहीं हुआ था, जितना उसके बाद से होने लगा. कविताओं में गुप्त अनुभूतियों और नितांत व्यक्तिगत अनुभवों के अंत:पाक के चलते यह कहना जायज लगता है कि अभिव्यक्तियाँ साधारणीकृत नहीं रहीं. कविताओं में उनकी जाती जिन्दगी के संघर्षों, इसके बेहतरीकरण के लिए स्पर्धाओं और द्वंद्वों तथा सुख-सुविधाओं को हासिल करने की उनकी ज़द्दोज़हद से उद्भूत उनकी पीड़ाओं को एकदम गौड़ बना दिया है. प्रकारांतर से, वे अपनी पीड़ा को पर-पीड़ा से अधिक भारी और दुर्वह मानने लगे हैं. अब वह ज़माना नहीं रहा जबकि कवि रचनाकर्म में प्रवृत्त होने से पहले, पीड़ित आदमी में खुद को समोकर या दूसरे शब्दों में, अपने व्यक्तित्त्व को पीड़ित व्यक्ति में ट्रांसमीग्रेट करके उसकी ज़िंदगी को झेलने या वास्तव में उसे समझने के कोशिश करता था. इसके अतिरिक्त, वह अपने भोगे हुए अहसासों को आम आदमी के अहसासों से तौलता था और यह निष्कर्ष निकालता था कि दोनों में से किसके अहसास ज़्यादा गहरे हैं जिन्हें रचनाओं में जगह दी जानी चाहिए.
 
कविता को नितांत निजता से बांधकर उसे अलपताप निरर्थक प्रयोगों से इतना जटिल बन दिया गया है कि पाठक उसे पढ़कर उसमें आवेष्टित व्यर्थ प्रयोगों पर विचार करने और समग्र कविता के निहिताशय को समझ पाने की जहमत उठने से पहले वह उसे कूड़ेदान में फेंक देना श्रेयष्कर समझता है. नि:संदेह, कवियों को अपनी रचनाओं के इस हश्र को भलीभांति समझना चाहिए. हां, यह अनिवार्यत: समझना होगा; अन्यथा, समूची कविता विधा को अवर्णनीय तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा. उसे मनुवादी या ब्राह्मणवादी होने के लांछनों से लज्जित होना पड़ेगा. लज्जित होकर साहित्य के किसी नितांत अरण्य में जाकर अपना मुंह छिपाना पड़ेगा. अपने अलोकप्रिय होने के गम में उसे कालापानी भोगना पड़ेगा जिसे खुद उसके पिता (कवि) ने दिया है.
हिन्दी कविता के बहु-परिवर्तनकारी दौर में अर्थात वर्ष १९४० के बाद से, विविध प्रयोगधर्मी प्रवृत्तियों के कारण अधिकाँश कवितायेँ शनै: शनै: अंतर्मुखी, व्यक्तिपरक, रहस्यमयी, आत्मप्रवंचनात्मक और स्वांत: सुखाय होती गईं. बेशक सातवें दशक तक, कविताओं में बोधात्मकता बनी हुई थी और पाठक उनके पठन-पाठन से उतना उचाट नहीं हुआ था, जितना उसके बाद से होने लगा. कविताओं में गुप्त अनुभूतियों और नितांत व्यक्तिगत अनुभवों के अंत:पाक के चलते यह कहना जायज लगता है कि अभिव्यक्तियाँ साधारणीकृत नहीं रहीं. कविताओं में उनकी जाती जिन्दगी के संघर्षों, इसके बेहतरीकरण के लिए स्पर्धाओं और द्वंद्वों तथा सुख-सुविधाओं को हासिल करने की उनकी ज़द्दोज़हद से उद्भूत उनकी पीड़ाओं को एकदम गौड़ बना दिया है. प्रकारांतर से, वे अपनी पीड़ा को पर-पीड़ा से अधिक भारी और दुर्वह मानने लगे हैं. अब वह ज़माना नहीं रहा जबकि कवि रचनाकर्म में प्रवृत्त होने से पहले, पीड़ित आदमी में खुद को समोकर या दूसरे शब्दों में, अपने व्यक्तित्त्व को पीड़ित व्यक्ति में ट्रांसमीग्रेट करके उसकी ज़िंदगी को झेलने या वास्तव में उसे समझने के कोशिश करता था. इसके अतिरिक्त, वह अपने भोगे हुए अहसासों को आम आदमी के अहसासों से तौलता था और यह निष्कर्ष निकालता था कि दोनों में से किसके अहसास ज़्यादा गहरे हैं जिन्हें रचनाओं में जगह दी जानी चाहिए.
कविता को नितांत निजता से बांधकर उसे अलपताप निरर्थक प्रयोगों से इतना जटिल बन दिया गया है कि पाठक उसे पढ़कर उसमें आवेष्टित व्यर्थ प्रयोगों पर विचार करने और समग्र कविता के निहिताशय को समझ पाने की जहमत उठने से पहले वह उसे कूड़ेदान में फेंक देना श्रेयष्कर समझता है. नि:संदेह, कवियों को अपनी रचनाओं के इस हश्र को भलीभांति समझना चाहिए. हां, यह अनिवार्यत: समझना होगा; अन्यथा, समूची कविता विधा को अवर्णनीय तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा. उसे मनुवादी या ब्राह्मणवादी होने के लांछनों से लज्जित होना पड़ेगा. लज्जित होकर साहित्य के किसी नितांत अरण्य में जाकर अपना मुंह छिपाना पड़ेगा. अपने अलोकप्रिय होने के गम में उसे कालापानी भोगना पड़ेगा जिसे खुद उसके पिता (कवि) ने दिया है.
कविता उपेक्षा की शिकार है. यह सर्व-मान्य है. प्रकाशक कविताओं की पांडुलिपियों को छापने से तकाल इनकार करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कविताओं को कोई पाठक घास नहीं डालता.
चुनिन्दा साहित्य-रसिकों को छोड़कर, शत-प्रतिशत पाठक उसे नज़रंदाज़ कर देते हैं, क्योंकि वह अपना नैसर्गिक आकर्षण खो चुकी है. ऐसी बात नहीं है कि रचनाकार यह बात समझते नहीं हैं.
उन्हें अच्छी तरह पता है कि वे उसमें कविता-सुलभ प्राण नहीं डाल पा रहे हैं. कविता-सुलभ आवेशा नहीं डाल पा रहे हैं. वे उसे वह फीलिंग, वह इमोशन नहीं दे पा रहे हैं जिससे पाठक खुद को जोड़कर उसे बरबस अपनाने को बैचेन हो सके. उसे अपनी पीड़ाओं का भागीदार बना सके. पत्र-पत्रिकाओं में उसे देखते ही मुंह बिचकाने के बजाय, उसे पढ़ने को लालायित हो सके. नि:संदेह, उसमें ऐसा आकर्षण पैदा करने के लिए, ज़रूरी नहीं है कि उसे 'सेक्सी' स्वरूप प्रदान करने जैसी अथक चेष्टाएं करने लगे. यह निश्चय ही आपत्तिजनक है. सर्वाधिक कवियों ने कविता के जरिए अपने 'सेक्सुअल अर्ज़' या 'सेक्सुअल फ्रस्ट्रेशन' को मुखर करने का बीड़ा ही उठा रखा है. ऐसा करके कुछों ने तो खासी मक़बूलियत भी हासिल कर ली है. कच्ची पटकथा वाले निहायत बेहूदी, अत्यंत लोकप्रिय टी ०वी० सीरियलों की भाँति, भीड़ को अपनी ओर खींचने की कोशिश में सफलता भी पाई है. किन्तु, कविता के माध्यम से अपनी दमित यौन कुंठाओं को मुखर करना या एन-कें-प्रकारेण यौन तुष्टि प्राप्त करना, परोक्षता: कविता के साथ बलात्कार करने जैसा है. एक ऐसी निर्दोष, कोमलांगी एवं सहज-समर्पित युवती के साथ बलात्कार करना है जो या तो बलात्कारी के दुस्साहस का प्रतिरोध नहीं कर सकती या ऐसा करना नहीं चाहती. इसका आशय यह है कि कविता कोई संन्यासिनी है जिसे 'सेक्स' से परहेज़ है. स्वस्थ समाज और स्वस्थ कविता, दोनों के लिए स्वस्थ 'सेक्स' की ज़रुरत है. कविता में सेक्स की उतनी ही मात्रा वांछनीय है जिससे सबक लेकर, समाज अपने उच्छृंखल 'सेक्स' से तौबा कर सके. आज मीडिया और दूरदर्शन जितना सेक्स समाज में उड़ेल रहे हैं, वह स्वयं एक 'ओवरडोज़' है. इनसे पहले से ही समाज को 'सेक्सोलिटिस' हो चुका है. इस सेक्सुअल ओवरडोज़ ने पहले से ही समाज में जघन्य पाशविकता के लाइलाज विषाणु पैदा कर रखे हैं.
अस्तु, तकाजा है--कविता को दादागिरी से बचाने का. यह दादागिरी कई रूपों में विद्यमान है. अभिव्यक्तियों में दादागिरी जग-जाहिर है. अप्रासंगिक, निरर्थक और बेतुके शब्दों के प्रयोग कर पांडित्य प्रदर्शन करने की बेजा आदत से हमारे शौक़ीन कविजन बाज नहीं आ रहे हैं. अंगरेजी कविताओं में लार्ड टेनिन्सन ने ऐसे प्रयोग करके बड़ा विवाद पैदा किया करते थे. लिहाजा, उनके प्रयोग क्लिष्ट तो होते थे; पर, निरर्थक नहीं. दूसरी दादागिरी कवियों के समीक्षकों की है, जो या तो उनकी खुशाम्दा करते हैं या उनकी निराधार आलोचना. समीक्षकों का तो कहना ही क्या? उनके जैसा खुशामद-पसंद व्यक्ति कोई और दूसरा नहीं हो सकता. आलम यह है कि जिस रचनाकार के वे चहेते होते हैं या जो रचनाकार उनसे संपर्क साधे रहता है, उसकी निहायत निरर्थक और साधारण रचनाओं को भी वे कालजयी घोषित कर, उसे श्रेष्ठतम कवि के रूप में वे साहित्याभिषेक करने से बाज नहीं आते हैं. वे किसी भी चाटुकार कवि की पीठ थपथपा कर उसका भविष्य निर्धारित करते हैं.
पत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण और ख्यातिलब्ध कवियों की रचनाओं को ही प्रमुखता से प्रकाशित करने की दादागिरी भी बड़ी आपत्तिजनक है. बड़े कवियों की थर्ड ग्रेड की सड़ी-गली रचनाओं को बड़े छाव-बधाव से प्रकाशित करके तथा किसी उदीयमान कवि की अत्यंत सशक्त और प्रासंगिक कविता को लौटाकर या प्रकाशनार्थ प्रतीक्षित रखकर सम्पादक अपनी श्रेष्ठता किस तरह प्रतिपादित करते हैं, यह बाट किसी से छुपी नहीं है. बहरहाल, अधिकाँश संपादकों का स्टार तो इतना गिरा हुआ है कि उन्हें काव्यांगों के बारे में कोई ज्ञान नहीं होता. दरअसल, ज्यादार सम्पादक बिगड़ैल मिजाज़ के असफल साहित्यकार होते हैं जिन्हें जब अपनी कूप-मंडूकता तथा भाव-विचारशून्यता के कारण साहित्य-जगत में उपेक्षा का मुंह देखना पड़ता है तो वे पत्रिकाओं का सम्पादन करने की गंभीर ज़िम्मेदारी उठाने लगते हैं. इस तरह उन्हें अच्छी-अच्छी रचनाओं और रचनाकारों की ऐसी-तैसी करने का सुनहरा मौक़ा भी मिल जाता है तथा छपास की बीमारी से पीड़ित रचनाकार उनके आगे-पीछे दुम हिलाते फिरते हैं.
अधिकाँश पत्रिकाओं के संपादकों को स्टार इतना गिरा होता है कि उन्हें कायांगों के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं होता. उन्हें यह भी पता नहीं होता कि कविता रचनाकार की सघन साधना की उपज होती है. अनुभूति की तपोभूमि पर सांसारिक पीड़ा की धूप से तपकर सतत तपस्या का वरदान होती है. वे स्वयं द्वारा संपादित पत्रिकाओं में अपने मित्रों और यहाँ तक कि अपने बच्चों आदि की उल-जुलूल कविताओं को प्रकाशित करके खुद को किसी बड़ी ज़िम्मेदारी से निवृत्त मानते हैं. वे अपने किसी ऐसे इष्ट पाठक की रचना को प्रकाशित करना अपना पुनीत कर्तव्य मानते हैं जिसने उनकी पत्रिका के नाम पर भारी-भरकम डोनेशन दिया है. पाठकों द्वारा इस बाबत कोई शिकायत दर्ज किए जाने पर वे बड़ा सहज तर्क पेश करते हैं कि यह मेरे रोजी-रोटी का सवाल है. अरे, मैं कहता हूँ कि आजीविका के लिए साहित्य की तिजारत करना उनकी कौन-सी मज़बूरी है. वे गाज़ियाबाद के घंटाघर के पास, बनारस के गोदौलिया चौराहे पर, दिल्ली के कनाट प्लेस में या मुम्बई के चौपाटी कोन पर कोई चाय-पान या चाट-मसाले की दुकान क्यों नहीं खोल लेते हैं? इस आजीविका स्रोत में उन्हें इतना मुनाफा होगा कि वे मजे से अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकेंगे और रोकड़ भी जमा कर सकेंगे. उदाहरण के लिए, गाज़ियाबाद के घंटाघर पर एक समोसा-विक्रेता के राज नगर में करोड़ों की कोठी है जिसे उसने समोसे काव्यापार शुरू करने के बाद बनवाया था. मैं समझता हूँ कि साहित्यिक पत्रिकाओं के पेशेवर सम्पादक वहां खुद जाकर मेरी बात की यथातथ्यता से अवगत होंगे और किसी बैंक से आसान किस्तों पर लोन लेकर कोई ऐसा धंधा अवश्य शुरू कर देंगे.
मेरी बातों को काव्य साधक अन्यथा न लें। वे सबक लेकर या तो कविता के लिए नि:स्वार्थ भाव से साधना करें या इस लफ़डे से पिण्ड छुडाकर एक स्वस्थ सामाजिक जीवन की शुरुआत करें। यह कविता पर उनका बडा परिपकार होगा; हां, मुजः जैसों पर भी, जो कविता के भविष्य को लेकर बडे चिन्तित हैं।
यह बात निर्विवाद है कि कविता का भविष्य अन्धकारमय है। कविता दुर्बोदः अभिव्यक्तियों की अन्धी गलियों में भटक रही है। इस भटकाव में वह सहजता, सुबोधता और सुगम्यता से बहुत दूर जा चुकी है। वह अन्तर्मुखी होने के कारण संवेदनशील नहीं रही। प्रासंगिक नहीं रही। हमारे और आपके साथ नहीं रही। वह एक-दो प्रतिशत समाज के साथ है जो (समाज) सिर्फ़ कवि का है। वह शत-प्रतिशत समाज के साथ नहीं है. समाज सहित रहने का दमखम खो चुकी है. समाज जो राष्ट्र का है, हमारे महाद्वीप का है और समूचे विश्व का है, उसके सहित रहने की आदत खो चुकी है. इस 'सहितता' के अभाव में, उसे साहित्य कहना, साहित्य के साथ अन्याय करना होगा. हमें कविता में इस सहितता के लिए जंग छेड़नी होगी. क्रांति का सूत्रपात करना होगा. आन्दोलन चलाना होगा. डपोरशंख कवियों के खिलाफ. समीक्षक-दादाओं के विरुद्ध. उन प्रायोजकों को चुनौती देनी होगी जो अपने चमचों और बाल-बच्चों को प्रतिभाशाली कवियों के रूप में लांच करते हैं जैसेकि वे उनकी कम्पनी या फैक्टरी के कोई प्रोडक्ट हों, उत्पाद हों. भले ही उनकी गुणवत्ता दोयम दर्जे की हो. सब-स्टैण्डर्ड हो.
यह बात ध्यातव्य है की धर्म-शास्त्रों में स्त्री का कोई वर्ण निर्धारित नहीं किया गया है. वह अवर्णा है. अर्थात, वह किसी वर्ण की नहीं है. या दूसरे शब्दों में, वह सभी वर्णों की है. जिस पिता की पुत्री है या जिस पुरुष की पत्नी है, वह उसी के वर्ण की है.वह जिस कुटुंब या जिस परिवार में होती है या जाती है, वह उसी का वर्ण और जाति ग्रहण कर ली है. यानी वह इतनी कोरी और स्वच्छ है कि उसे सभी स्वीकार कर लेते हैं. यही बात कविता के संबंध में है. वह हमारे ही शास्त्रों के नियमों से शासित-संचालित है. वह 'साहित्य' परिवार कि बेटी है. उपन्यास और नाटक की लाडली बहन है. वह निश्छल है, भोली है. सभी की दुलारी है. सभी उससे प्यार करते हैं. जो उसे प्यार करता है, वह उसी की गुणधर्मी है. उसी की बिरादरी की है. इस प्रकार, वह सभी वर्णों के पाठकों की सहधर्मिणी है. बिना किसी भेदभाव और परहेज के.
 
इसलिए कविता किसी भी प्रकार से उपेक्षणीय नहीं है. वह सर्वस्वीकार्य है. सार्वत्रिक है. सार्वभौमिक है. यह बात भी सच है कि पाठकों का प्यार उसे उसकी खोई हुई अस्मिता, पहचान और स्वरुप की पुन:प्राप्ति में अवश्य मदद करेगा. उसमें पाठकों की दिलचस्पी उसे न केवल अपना स्वाभाविक लावण्य को वापस दिलाने में मददगार होगी बल्कि पाठकों की रूचि को देखते हुए कविजन उसे सरलता और सहजता से निखारने में अपना योगदान करेंगे. हिंदी कविता के संबंध में, उसके अलोकप्रिय होने का एक प्रमुख करण उसे छंदबद्धता और गेयता से दूर ले जाना माना जाता रहा है. यह आक्षेप चुनिन्दा पाठकों, आलोचकों, गीतकारों और कविता के पुरोधाओं द्वारा लगाया जाता रहा है. किन्तु, इस विषय पर अब चुप्पी साधे रहना कविता के लिए घातक होगा. सारा संस्कृत काव्य अतुकांत, अमात्रिक, छंदमुक्त रहा है. लगभग नब्बे फीसदी अंगरेजी काव्य छंदमुक्त रहा है. फ्रेंच कवितायेँ भी अधिकांशत: छंद की परम्परा का पूर्णरूपेण पालन नहीं करती है. यही बात अमरीका, यूरोप, अफ्रीका और एशिया के महानतम काव्य साहित्यों के बारे में सच है. एशिया के छोटे-छोटे देशों और द्वीपों में आज विशिष्ट और बड़ी सार्थक कवितायेँ लिखी जा रही हैं जो पूर्णतया छांदिक अनुशासनों का पालन नहीं करती हैं. वे बड़ी लोकप्रिय हैं. चर्चित हैं. अनूदित हैं. और सर्वस्वीकृत भी हैं.
अधिकाँश पत्रिकाओं के संपादकों को स्टार इतना गिरा होता भारत में भी निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, नागार्जुन जैसे कवियों ने अतुकांत छंदों में कालजयी कवितायेँ लिखी हैं. उन्हें सर्वस्वीकृति मिली है कि उन्हें कायांगों के बारे . साहित्य और जनमानस में कोई ज्ञान ही प्रतिष्ठा मिली है. इसलिए, हिंदी कविता का अतुकांत होना उसकी अलोकप्रियता का कारण नहीं होतामाना जा सकता. उन्हें यह भी पता दरअसल, जिन विषयों पर अतुकांत कविताएँ लिखी जाती हैं, उन पर गे कवितायेँ या गीत नहीं होता कि कविता रचनाकार की सघन साधना की उपज होती हैलिखी जा सकते. अनुभूति कुष्ठ रोगियों पर गीत गाना बेहद आपत्तिजनक होगा. मेहतरों की तपोभूमि दुर्दशा पर सांसारिक पीड़ा की धूप से तपकर सतत तपस्या का वरदान होती ग़ज़ल नहीं लिखी जा सकती है. वे स्वयं द्वारा संपादित पत्रिकाओं में अपने मित्रों इसलिए, निराला ने भिखमंगे पर और यहाँ तक पत्थर तोड़ने वाली मजदूरनी पर अतुकांत कविताएँ लिखीं. इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि अपने बच्चों आदि की उल-जुलूल कविताओं को प्रकाशित करके खुद को किसी बड़ी ज़िम्मेदारी वह अच्छी छंद रचनाएं नहीं कर सकते थे. उनकी गे रचनाएं सांगीतिक परम्पराओं से निवृत्त मानते सन्नद्ध हैं. वे अपने किसी ऐसे इष्ट पाठक मांगलिक अवसरों और उत्सवों की रचना को प्रकाशित करना अपना पुनीत कर्तव्य मानते श्रीगणेशिका हैं जिसने उनकी पत्रिका के नाम पर भारी-भरकम डोनेशन दिया है. पाठकों द्वारा इस बाबत कोई शिकायत दर्ज किए जाने पर वे बड़ा सहज तर्क पेश करते रोमानी दिलों की साम्राज्ञी हैं कि यह मेरे रोजी. सत्यम शिवम् सुन्दरम हैं. उसी प्रकार, उनकी अतुकांत कवितायेँ भी काव्य-रोटी सुलभ अनुशासनों का सवाल हैपालन करती हैं. अरेइसलिए, मैं कहता हूँ आज जबकि अतुकांत कविताओं का 'उत्पादन' कि आजीविका के लिए साहित्य प्रचुरता से हो रहा है, कवियों को हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए. नि:संदेह! उनमें छंदबद्ध कवितायेँ लिखने की तिजारत करना उनकी कौन-सी मज़बूरी भरपूर क्षमता है. वे गाज़ियाबाद के घंटाघर के पासहाँ, बनारस के गोदौलिया चौराहे पर, दिल्ली के कनाट प्लेस में या मुम्बई के चौपाटी कोन पर कोई चाय-पान या चाट-मसाले की दुकान क्यों नहीं खोल लेते हैं? इस आजीविका स्रोत में आवश्यकता है उन्हें इतना मुनाफा होगा कि वे मजे से अपने परिवार अपनी क्षमता का भरण-पोषण कर सकेंगे और रोकड़ भी जमा कर सकेंगेसार्थक प्रयोग करने की. उदाहरण के लिएताकि कविता को न केवल बचाया जा सके, गाज़ियाबाद बल्कि उसे सर्वग्राह्यता के घंटाघर पर एक समोसा-विक्रेता के राज नगर में करोड़ों की कोठी है जिसे उसने समोसे काव्यापार शुरू करने के बाद बनवाया था. मैं समझता हूँ कि साहित्यिक पत्रिकाओं के पेशेवर सम्पादक वहां खुद जाकर मेरी बात की यथातथ्यता से अवगत होंगे और किसी बैंक से आसान किस्तों पर लोन लेकर कोई ऐसा धंधा अवश्य शुरू कर देंगेस्तर तक लाया जा सके.
मै चाहता हूँ कि इस संग्रह में मेरी बातों कविताओं को उपर्युक्त सन्दर्भ में पढ़ा जाए. मैंने अपने प्रथम काव्य साधक अन्यथा न लें। संग्रह 'पगडंडियाँ' में पाठकों के पास जाकर उनसे उनकी ही भाषा और भावना के अनुसार बतियाने की कोशिश की थी. उनसे मैंने अपने दोषों के बारे में ध्यानपूर्वक सुना और धीरे-धीरे उन्हें दूर करने की कोशिश की है. उनसे मेरा अनुनय निवेदन है कि वे सबक लेकर या तो कविता मेरे प्रस्तुत काव्य संग्रह 'चाहता हूँ पागल भीड़' के लिए नि:स्वार्थ भाव बारे में अपनी विस्तृत प्रतिक्रियाओं से साधना करें या इस लफ़डे से पिण्ड छुडाकर एक स्वस्थ सामाजिक जीवन की शुरुआत करें। अवगत कराएं ताकि मै आइन्दा उनके सामने और भी सुधारे हुए रूप में प्रस्तुत हो सकूं. मेरा यह कविता पर उनका बडा परिपकार होगा; हां, प्रयास रहा है कि मै पांच-दस प्रतिशत लोगों के बारे में ही बातें न मुझ् जैसों पर भीकरूं. मै शत-प्रतिशत समाज के संबंध में बातें करना चाहता हूँ. मैं समूची मानवता को, जो कविता समाज में स्पन्दनशील हर अभिकर्ता और अभिकरण को साहित्य में समेटना चाहता हूँ. उन पक्षों के भविष्य बारे में बातें करना चाहता हूँ जिनसे मनुष्य, उसके जीवन का हर पहलू, उससे निर्मित और प्रभावित हर वस्तु का प्रत्यक्षत: अथवा परोक्षत: सरोकार है. मै समझता हूँ कि मुझे उल्लेखनीय स्वीकार्यता मिलेगी. मेरी काव्यात्मकता को लेकर बडे चिन्तित हैं। बेहतर जनाधार मिलेगा.
यह बात निर्विवाद है कि कविता का भविष्य अन्धकारमय है। कविता दुर्बोध अभिव्यक्तियों की अन्धी गलियों में भटक रही है। इस भटकाव में वह सहजता, सुबोधता और सुगम्यता से बहुत दूर जा चुकी है। वह अन्तर्मुखी होने के कारण संवेदनशील नहीं रही। प्रासंगिक नहीं रही। हमारे और आपके साथ नहीं रही। वह एक-दो प्रतिशत समाज के साथ है जो (समाज) सिर्फ़ कवि का है।म.श्री.