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मुनिया / अंजना बख्शी

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{{KKCatStreeVimarsh}}<poem>‘मुनिया धीरे बोलोउस वृक्ष की पत्तियाँआज उदास हैंइधर-उधर मत मटकोऔर उदास हैचौका-बर्तन जल्दी करोउस पर बैठी वो काली चिड़ियासमेटो सारा घर’
आज मुनियाचुप थीनहीं आई खेलनेसमेट लेना चाहती थी वह अपनेअब वो बिखरे सपनेअपनी बिखरी बालों की लटजिसे गूंथ मां ने कर दिया था सुव्यवस्थित‘अब तुम रस्सी मत कूदनाशुरू होने को है तुम्हारी माहवारीतुम बड़ी हो गई हैहोउसका ब्याह रचाया जायेगा”मुनिया“सच मांक्या मैं तुम्हारे जितनी बड़ी हो गई हूंक्या अब मेरी भी हो जाएगी शादी
गुड्डे-गुड्डी”मेरे जैसे ही मेरी भी मुनिया...?खेलऔर उसकी भी यही जिन्दगी...नहीं मांमैं बड़ी नहीं होना चाहती“कहते-खिलौनोंकी दुनिया छोड़कहते टूट गईमुनिया हो जायेगीअब उस वृक्ष की जड़-सी स्तब्धनींद
उस वृक्ष की पत्तियांआज उदास हैंऔर उदास हैं उस पर बैठीवह काली चिड़ियाआज मुनिया नहीं आयी खेलनेअब वह बड़ी हो जाएगीगई है नउसका ब्याह होगागुड्डे-गुड्डी खेल खिलौनों की दुनिया छोड़मुनिया हो जायेगी उस वृक्ष की जड़-सी स्तब्धहो जायेगी उसकी जिंदगीजिन्दगी
उस काली चिड़िया-सी
जो फुदकना छोड़
बैठी है उदासउस वृक्ष की टहनी पर।पर!</poem>
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