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<poem>
टँगी है अरगनी पर कुछ
अभी उदासियाँ मेरी
अभी मैं साफ हर कोना
घर का कर नहीं सकती।
 
आए उम्मीद तो, मेहमान सा
तुम मत बैठ लेना
अभी ख़्वाबों का परदा रेशमी
मैं कर नहीं सकती।
 
बुझी ख़्वाहिश सा है फैला
दस्तरख़ान भी मेरा
अभी रंगीन प्याले कांच के
मैं भर नहीं सकती।
 
अभी बाकी है अरमानों की
मातमपुर्सी भी
अभी साथ मैं तुम्हारे
सफर पर चल‌ नही सकती ।
 
हैं जो तल्ख़ियाँ बाकी
बहुत मिज़ाज में मेरे
बकाया सब चुकाना है
उधार रख नहीं सकती ।
 
तुम्हें अब छोड़ना होगा
मुझे बस हाल पर मेरे
कि मानो मर चुकी हूँ मैं,
फिर-फिर मर‌ नहीं सकती ।
</poem>