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क्षणिकाएं / कुमार मुकुल

552 bytes added, 11:04, 3 अगस्त 2019
हाँ, मेरी शख्सियत भी
दूब है।
 
सांसें
रूकती बस उसके लिए हैं
बाकी
सांसों का काम है चलना
तो,
चल रही हैं वे।
 
कहां हो तुम
आवाज तो दो
के आंसू अभी भी
हंसी से होड़ में
जीत जाते हैं।
 
बेलौस निगाहों में
कांपते
बुलंदियों के पठार
यह सौंदर्य
किसके पास है।
</poem>
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