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कितना निठुर यह उपहास / जानकीवल्लभ शास्त्री
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12:36, 14 अगस्त 2009
अश्रु-'कण' कहकर जिसे
::::
मैंने बहाया हाय !
सूक्ष्म रूप धरे वही था -
::::
हृदयहारी हास !
::::
कितना निठुर यह उपहास !
स्वप्न-सुख की आस में
वह गया नित लौट -
शत-शत बार आकर पास !
::::
कितना निठुर यह उपहास !
:::::
('रूप-अरूप)
</poem>
अनिल जनविजय
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