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विस्थापन के दंश / गीता शर्मा बित्थारिया

वृक्ष
स्त्रियां
मजदूर
सपने
प्रेम
और वो सब
जो जहां पनपे
रह न सके वहां
अलगाव के
स्थायी भाव का
दंश लिए जीते हैं

विस्थापन
एक प्रक्रिया नहीं
विडंबना है
विकास की वेदी पे दी गई
अघोषित नरबलि

विस्थापित
अपनी अपनी
निजी नियति के साथ
निकलते हैं
अनकही पीड़ा
अदृश्य भार
अनथक प्रयास
अदम्य साहस
अलगाव का दर्द
अनिश्चित भविष्य के साथ
एक अकल्पनीय
अनवरत संघर्ष यात्रा पर

विस्थापन
छीन लेता है उनसे
उनकी मूल प्रकृति
वे फिर कभी
वैसे नहीं हो पाते
जैसे वे पहले थे
कृष्ण भी कहाँ
मुरली बजा पाए थे
बृज से जाने के बाद
ये एक ऐसी वेदना है
 जिसे सिर्फ भोगने वाला ही
अनुभव किया करता है

पर
विस्थापन
 तो एक शाश्वत
अवश्यसंभावी
प्रकृति का नियम ही तो है
मां के गर्भ से
विस्थापन के साथ
 जन्मता है मनुज
इस ज्ञान के साथ कि
 मृत्यु भी जीवन का
 विस्थापन ही तो है ।