Last modified on 29 जून 2017, at 09:17

विस्थापित औरतें / सोनी पाण्डेय

1.

अपनी जड़ें तलाशती सन्नों
पिता ने तलाश ली है
न ई उर्वरा ज़मीन
खूब विस्तार है
पास ही नदी बहती है
दरवाजे पर राजा की सवारी है
परजा हैं
पसारी हैं
दूर तक फैला है ठाट
पिता की इकलौती सन्तान सन्नों
खोदी जा रही है जड़ समेत
धूम-धडाके, गाजे-बाजे
सहनाईयों की धून पर चल रहा है कुदाल
हल्दी, मटमंगरा,
बारात, द्वारपूजा
और अन्ततः सिन्दूरदान
उखड़ गयी सन्नों
कराहते, रोते, चित्कारते पहुँची
न ई ज़मीन में
गाड़ी जा रही है सन्नों
भर रहे हैं घाव
निकल रही हैं शाखाऐँ
लेकिन जड़ों से उखाड़ी गयी सन्नों जानती है
उखडना उसकी विवशता है
उखाडी जा सकती है एक बार फिरसे बेटों के हाथों
और बीच से काटकर
बांटी भी जा सकती है
इस लिए अपनी जड़ों की तलाश में गढना चाहती बेटी के लिए
एक ऐसा गमला जिसे आसानी से जड़ समेत आयात-निर्यात किया जा सके,
बिना उखाडे।

2.

छोटे शहर की लड़की.,
छोटे शहर की लड़की
पारुल
जा रही है ब्याह कर
मुखौटों के शहर दिल्ली
पति दिल्ली में लाखों के पैकेज पर कार्यरत है
गाड़ी, फ्लैट, और सुख सुविधाओं से भरा जीवन होगा
बेटी का
इस लिए पिता ने लाखों खर्च कर भेज दिया
बेटी को बड़े शहर दिल्ली
अभी आऐ हुए
ज़ुमा-ज़ुमा चार दिन ही हुए थे कि पति ने फरमान जारी किया
ये गवारु परिधान
सिन्दूर, बिन्दी उतारों और
ठीक वैसे रहो
जैसे रहती हैं बिल्डिग की औरतें
पारुल ने छोड़ दिऐ
पिहर के परिधान
अब वह पहनती है ठीक वही कपडे जो पहनता है
बड़ा शहर दिल्ली
अभी ज़ुमा -ज़ुमा आए चार माह ही गुजरे हैं कि पति चाहता है
पारुल नौकरी करे ठीक वैसे
जैसे करती हैं बिल्डिंग की अन्य औरतें
फरमान जारी किया
पूरे दिन घर में बैठी रहती हो गवारों की तरह
नौकरी करो
एम0ए0. बी0एड0
पारुल अब पढाती है पब्लिक स्कूल में ठीक वैसे
जैसे पढातीं हैं औरतें छोटे शहरों की
जैसे पढ़ाता है बड़ा शहर दिल्ली
सुबह आठ बजे से रात बारह तक
पति करता है काम बड़े पैकेज पर
बैंक भर रहा है रुपयों से
पति पारुल को पहनाता है मँहगे कपड़े, क्रेडिट कार्ड से कराता है खरीददारी
लेकिन नहीं जानना चाहता पारुल की पसन्द
नही सुनना चाहता उसकी भावुक फरियाद
तुम औरतें सेण्टीमेण्टल होती हो
थोड़ी क्रेजी भी
जिन्दगी में प्रेम एक जरुरत है फिजिकल
ठीक वैसे, जैसे भागती हुई मैट्रो में जीता है
बड़ा शहर दिल्ली
पारुल तलाशती है मैट्रो में बैठी
हम उम्र औरतों की आँखों में
अपना छोटा शहर
अनगिन आँखों में पाती है
प्यास अपनी सखियों के सपनोँ की
भूख उड़ान की, मन भर अपने मन की
तलाश अपने पसन्द के कपड़ों की
ख्वाहिशेँ अपनी, अपना जीवन
अपनी शर्तोँ पर जीना
लेकिन पिता चाहते हैं बेटी राज करे पति के बड़े पैकेज की नौकरी में
ठीक वैसे ही, जैसे करतींहैं छोटे शहर की लड़कियाँ
जीता है बड़ा शहर दिल्ली
लगा कर मुखौटा आधुनिकता का पारुल जीती है पति के शर्तों पर समेट कर आँखों
में छोटे शहर के सपने,अपना जीवन
और तलाशती है हर एक में अपना छोटा शहर।

3.

मुनिया अपना गाँव छोड़ आई...
कुल तेरह की थी
मुनिया
जब ठेकेदार संग अपने टोले की लड़कियों और जवान औरतों संग
आई थी शहर
ईँट के भट्ठे पर
कमाने
विधवा माँ के लिए
थोड़ा सा धन जुटाने
कि, छुड़ाई जा सके
बनिये से चार बिस्से रेहन की ज़मीन।
इसी माह जाना था उसने माहवारी का दर्द
माँ थोडी सहमी थी
बेटी सयानी हो गयी
फिर भी भेजना जरुरी था
कोई चारा नहीं
ज़मीन छुड़ानी है।
मस्त, मासूम मुनिया
पूरे दिन चालती है, फोडती है मिट्टी के ढेले
सानती है, माढती है
थापती हैं ईँटे और जल्दी-जल्दी समेट कर छोटे,
पुराने बक्से में रुपये
भाग जाना चाहती है
वापस अपने गाँव, सिवान
बस इतना जानती है कि दुनिया
बिहार और उसका देस
सिवान है
बाकी सब परदेस।
मुनिया की सुकोमल उँगलियों
बलिष्ठ माँसपेशियों
और सुडौल उभारों को देख कर
ठेकेदार मुस्कुराता है
पुरानी मजुरनियों को कनखी से समझाता है
आए दिन रात को शराब परोशने के ऐवज में पचास की नोट पकडाता है
मुनिया फँसती गयी वैसे ही जैसे चारे के लालच में फँसती है मछली और अन्ततः
बिक जाती है मनुष्योँ के बाजार में।
मुनिया के बक्से में रुपया है
नये कपड़े हैं
कुछ चाँदी के गहने है
बरसात में ट्रैक्टर पर बैठकर लौट रही है अपने देस सिवान
पूरे एक साल में बन गयी है सुडौल, सुगढ औरत।
खेत छूट गया
अब टोले भर के लडके उसे रण्डी पुकारते हैं
माँ आँखे चुरा कर चलती है
जीना मुहाल है
रात में खटकता है अक्सर दरवाजा
माँ दस साल की छोटी बेटी को छाती से साट कर
चम ईनिया माई को गुहराती है।
अब मुनिया माँ के लिए बोझ है कोई ब्याह को तैयार नहीं
कोई रास्ता नहीं
एक बार फिर मुनिया, टोले की कुछ लड़कियों और औरतों संग आगयी है भट्ठे पर
ठेकेदार अब कोई नयी लड़की चाहता है, मुनिया को कनखियाता है
मुनिया जानती है कि नहीं लौट पाऐगी भोगी हुई लडकी
वापस अपने देस
इस लिए बार-बार परोसती है खुद को
बचा कर कुछ लड़कियों को पाती है सुकुन
भेज कर बरसात में वापस उन्हें अपने देस
लौट आती है ईंटों के बीच
सुलगती भट्ठी को देखर रोती है
और उँगलियों से बनाकर
दुनिया का गोला
खोजती है अपना देस सिवान।

4.

हम पूरब में सूर्य को निहार लेते हैं...
अल सुबह
पूरब में उगते सूर्य को निहारना
वस्तुतः एक ऐसी क्रिया है
जो जोड़ती है हमें जड़ों से।
हम औरते
सभ्यता के गमले में
उगा हुआ बोनजाई हैं
जिसे आसानी से हस्तानान्तरित किया जा सकता है।
संवेदना की ज़मीन से उखाड़कर
पैदा होते ही रोप दिया जाता है आँगन में एक किनारे
गमले में
खाद, पानी देकर इस तरह तैयार किया जाता है कि
एक तय समय सीमा में
दान किया जा सके दूसरे के आँगन में।
दूसरे आँगन में जगह बदलती जरुर है
किनारे से हटा कर आँगन के मध्य तुलसी की तरह सजा दिया जाता है और जरुरत भर
खाद, पानी समय-समय पर मिलता है
सम्मान थोड़ा बढाकर।
हम औरतें जड़ों की तलाश में पूजती हैं तुलसी
भोरे निहार आती हैं सूरज
कि, उनकी जडोँ से इनका उतना ही गहरा नाता है
जितना शिशु का गर्भनाल से और
मन ही मन कर लेती हैं सन्तोष की सूरज आज भी माँ के गर्भनाल से जुड़ा
जोड़ता है उन्हें जड़ों से...