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वुरूद-ए-जिस्म था जाँ का अज़ाब होने लगा / ख़ालिद कर्रार
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वुरूद-ए-जिस्म था जाँ का अज़ाब होने लगा
लहू में उतरा मगर ज़हर आब होने लगा
कोई तो आए सुनाए नवेद-ए-ताज़ा मुझे
उठो के हश्र से पहले हिसाब होने लगा
उसे शुबह है झुलस जाएगा वो साथ मेरे
मुझे ये ख़ौफ के मैं आफताब होने लगा
फिर उस के सामने चुप की कड़ी लबों पे लगी
मेरा ये मंसब-ए-हर्फ आब आब होने लगा
मैं अपने ख़ोल में ख़ुश भी था मुइमइन भी था
मैं अपनी ख़ाक से निकला ख़राब होने लगा
ज़रूर मुझ से ज़ियादा है उस में कुछ ‘ख़ालिद’
मेरा हरीफ अगर फ़तह-याब होने लगा