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वृन्द के दोहे / भाग ५

नीति के दोहे

करत-करत अभ्यास ते, जडमति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान॥41॥

जो पावै अति उच्च पद, ताको पतन निदान।
ज्यौं तपि-तपि मध्यान्ह लौं, अस्तु होतु है भान॥42॥

जो जाको गुन जानही, सो तिहि आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है, काग निबौरी लेत॥43॥

मनभावन के मिलन के, सुख को नहिंन छोर।
बोलि उठै, नचि नचि उठै, मोर सुनत घन घोर॥44॥

सरसुति के भंडार की, बडी अपूरब बात।
ज्यौं खरचै त्यौं-त्यौं बढै, बिन खरचे घटि जात॥45॥

निरस बात सोई सरस, जहाँ होय हिय हेत।
गारी प्यारी लगै, ज्यों-ज्यों समधिन देत॥46॥

ऊँचे बैठे ना लहैं, गुन बिन बडपन कोइ।
बैठो देवल सिखर पर, बायस गरुड न होइ॥47॥

उद्यम कबहुँ न छोडिए, पर आसा के मोद।
गागरि कैसे फोरिये, उनयो देखि पयोद॥48॥

कुल कपूत जान्यो परै, लखि-सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात॥49॥

मोह महा तम रहत है, जौ लौं ग्यान न होत।
कहा महा-तम रहि सकै, उदित भए उद्योत॥50॥