Last modified on 17 जून 2020, at 19:50

वेदना का मीत / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

वेदना का मीत हूँ मैं।
आज तक जो बुझ न पाया,
सुलगता हुआ वह गीत हूँ मैं।

यह धरा यह आसमां, हंसते रहे मुझ पर सभी।
उपहास्य मैं सबका बना पर स्नेह न पाया कभी।
यह गली यह मोड़ मुझ से, कह रहे बीती कहानी।
किंतु इनमें गूंजता जो वह दुःखद संगीत हूँ मैं
वेदना का मीत हूँ मैं

हर समय बोझिल बना सा, जीर्ण मन और क्षीण कांया।
प्रीत कर संसार से...मैने यही उपहार पाया।
रात के सुने प्रहर में, अधजले सपने किसी के,
किन्तु इनमें भटकती जो, वह भुलाई प्रीत हूँ मैं।
वेदना का मीत हूँ मैं।