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वेश्या - 1 / अनुपमा तिवाड़ी

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अपने कलेजे के टुकड़े को नाले और झाड़ियों में फेंक देने वाली कलमुँही.
वो कलमुँहा कहाँ है ?
अड्डे पर बैठी रंडी / वेश्या,
तेरे अड्डे पर आने वाला
वो रंडा / वैश्य कहाँ है ?
अपनी पलकों पर प्रेम के सपने सजाने वाली बदचलन
वो बदचलना कहाँ हैं ?
ये तीनों तुम्हें कहीं नहीं मिलेंगे
ये कहीं होते ही नहीं !
स्त्रियों देखो, तुम सब जगह होती हो
तुम मंदिर में देवी हो
हराम की औलाद गर्भ में ले कर घूमने वाली चरित्रहीन हो
प्रेम करने वाली बदचलन हो
घर पर पैर की जूती हो.
बस, घर में एक औरत और बाहर एक स्त्री नहीं हो !
तुम्हें इन जगहों पर बिठाने वाला
पुरुष है,
पौरुष है,
पुरुषार्थ है
बस, आदमी नहीं है.
आदमी होता तो वह,
यह नहीं कर पाता.
इसलिए ही तो पुरुष होना आसान है
आदमी होना बहुत कठिन है.
हम औरतें देखती हैं
एक पुरुषविहीन दुनिया का सपना,
अभी तो फिलहाल मिलते हैं,
लाख में कोई,
सौ आदमी !