Last modified on 26 अप्रैल 2009, at 22:40

वे जो वसन्तदिन / शंख घोष

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:40, 26 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=शंख घोष }} Category:बांगला <poem> और एक और एक दिन इसी तर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: शंख घोष  » वे जो वसन्तदिन

और एक
और एक दिन इसी तरह ढल जाता है पहाड़ के पीछे
और हम निःशब्द बैठे रहते हैं।
नीचे गाँव से उठ रहा है किसी हल्ले का आभास
हम एक-दूसरे का चेहरा देखते हैं।
अकड़ी हुई लताओं की मानिन्द लिपटे रहते हैं हम
और चेहरे पर आकर जम जाती हैं बर्फ़ की कणिकाएँ
इच्छा होती है सोचें कि हम
अतिकाय बर्फ़ीले-मानव हैं।
आग जलाकर बैठते हैं चारों ओर
कहते हैं, अहा, आओ गपशप की जाए।
वे जो वसन्तदिन थे...
वे जो वसन्तदिन थे...
और वसन्तदिन सचमुच हमारे हाथ छोड़
सूदूर जाने लगते हैं!


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी