http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A5%87_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A5%82%E0%A4%A8_%E0%A4%A5%E0%A5%87_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95&feed=atom&action=historyवे नाख़ून थे / नरेन्द्र पुण्डरीक - अवतरण इतिहास2024-03-29T01:06:10Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A5%87_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A5%82%E0%A4%A8_%E0%A4%A5%E0%A5%87_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95&diff=208608&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र पुण्डरीक |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2016-07-27T04:24:34Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र पुण्डरीक |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|संग्रह=<br />
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<poem><br />
जब वे हमारे साथ पढ़ते थे <br />
तब वे हमें अपने नाख़ून के <br />
बराबर छोटे लगते थे <br />
जैसे ही बढ़ते थे उनके नाख़ून <br />
हमारे बाप-दादाओं को<br />
असुविधा होने लगती थी <br />
इस पर वे उन्हें उनके हाथ-पैर से नहीं<br />
सीधे-सीधे सर से काट लेते थे <br />
यह देख कर हमें अजीब-सा लगता था <br />
क्योंकि वे हमें अपने जैसे ही दिखते थे <br />
पर ऐसा करते हुए <br />
हमारे बाप-दादाओं को राहत महसूस होती थी <br />
कुछ दिन तक हमारे बाप-दादा <br />
बेखटके आराम से रह लेते थे,<br />
<br />
पर वे नाख़ून थे <br />
उन्हें तो बढ़ना ही था<br />
और वे बढ़े,<br />
<br />
जब वे खेल के मैदान में <br />
हमारे साथ खेलते थे <br />
हमारे बाप-दादा भय की तरह <br />
उनके आस-पास डोलते रहते थे <br />
और वे हार जाते थे <br />
हमारे अकुशल और कमज़ोर हाथों से <br />
बार-बार पिटते थे <br />
क्योंकि उनका पिटना हमारे<br />
बाप-दादाओं को अच्छा लगता था,<br />
<br />
खेल के मैदान में हारते हुए जब वे <br />
पढ़ाई के मैदान में आगे होते दिखाई देते <br />
तो हमारे बाप-दादा हम पर <br />
खीझते हुए कहते -- ‘हम सब की<br />
नाक कटा लओ<br />
यह चमरे ससुरे आगे बढ़ गओ’<br />
<br />
ये वे दिन थे जब वे <br />
स्कूल में भूखे रहने पर भी <br />
पेट को हवा से फुलाए रखकर <br />
हमारे साथ दिन-भर पढ़ते थे <br />
तब इन्हें अपनी भूख मारने की <br />
कई कलाएँ आती थी <br />
अक्सर पानी से पेट फुला कर <br />
पहुँचते थे घर <br />
कभी हवा से <br />
कभी पानी से <br />
पेट फुला कर बढ़ते हुए <br />
इन्हें देख कर अक्सर लगता था,<br />
<br />
कितने बेवकूफ़ और बेशऊर थे <br />
हमारे बाप-दादा जिन्होंने <br />
दीप की लौ को <br />
अन्धेरे की चादर से ढकनें में ही <br />
गवाँ दी अपनी सारी अक़ल, <br />
<br />
यह सब और इस समय को देखकर <br />
मुझे विष्णु नागर की कविता की <br />
ये लाइनें याद आ रही हैं<br />
‘दया राम बा<br />
नंगे रहो और करो मज़ा’<br />
यानी अब हमारे लिए और <br />
उनके लिए कुछ नहीं बचा <br />
यह नंगों का समय है <br />
नंगे मज़ा कर रहे हैं।<br />
</poem></div>अनिल जनविजय